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________________ उत्तराध्ययनसूत्रे गन्धविषये तृप्तिप्राप्ति रहितस्य ये दोषा भवन्ति तानाहमूलम्-गधे अतित्ते य परिग्गहम्मि, सत्तोवसत्तोन उवेई तुर्छि। अतुहिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥५५ छाया-गन्धे अतृप्तश्च परिग्रहे, सक्तोपसक्तो न उपैति तुष्टिम् । अतुष्टिदोषेण दुःखी परस्य, लोभाविलः आदत्ते अदत्तम्॥५५॥ टीका-'गंधे अतित्ते' इत्यादिगन्धे अतृप्तश्च, परिग्रहे परिग्रहविषये गन्धे इत्यर्थः, सक्तोपसक्तो तुष्टिं 'गंधाणु' इत्यादि। अन्वयार्थ- (गंधाणुवाएण-गन्धानुपाते) गंधमें अनुराग होने पर गंधविषयक (परिग्गहेण-परिग्रहेण) परिग्रहसे यह जीव गंध युक्त वस्तुके (उप्पायणे रक्खणसन्निओगे-उत्पादने रक्षणसन्नियोगे) उपार्जन करने में तथा उसके रक्षण करने में एवं उसको स्व और परके प्रयोजनमें लगाने में तथा (वए विओगे य कहं सुह-व्यये वियोगे च कथं सुखं) उसके व्यय होने पर एवं विनाश होने पर दुःखी ही रहता है। (संभोगकाले य अतित्तिलाभे-सम्भोगकाले च अतृसिलाभे) उपभोगकालमें भी इस जीवको उस गंधसे तृप्तिका लाभ नहीं होता है। अतः उस अवस्थामें भी यह सुखी नहीं होता है ॥५४॥ 'गंधे' इत्यादि। अन्वयार्थ-प्राणी (गंधे अतित्ते-गन्धे अतृप्तश्च) जब गंध विषयमें तृप्त नहीं " गंधाणु" त्याहि ! म-क्या-गंधाणुवाएण-गन्धानुपाते म मनु। थवाथी मध विषय: परिगाहेण-परिग्रहेण परिघडथी ये ७१ अयुत पस्तुर्नु उप्पायणे रक्खणसनिओगे-उत्पादने रक्षणसन्नियोगे 60 ४२१मां तथा तेनुं २क्षा કરવામાં અને તેને પોતાના અને બીજાના ઉપગમાં લગાડવામાં તથા વા विओगे य कहं सुह-व्यये वियोगे च कथं सुखं अने। व्यय पाथी तभ विनाश थपाथी म त २७ छ. संभोगकाले य अतित्तिकाले-संभोगकाले च अतृप्सिलामे ઉપભોગ કાળમાં પણ એ જીવને તે ગંધની તમીને લાભ થતો નથી. આથી से अवस्थामा पण ते सुभी था नथी. ॥५४॥ “गंधे " त्याहि. भ-पयार्थ-प्राधा गंधे अतित्ते य-गन्धे अतृप्तश्च न्यारे 1 विषयमा उत्तराध्ययन सूत्र :४
SR No.006372
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size55 MB
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