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________________ ४१६ टीका-' एमेवरूवम्मि ' इत्यादि " रूपे = अमनोज्ञरूपविषये, प्रद्वेषं गतः = प्राप्तश्च । एवमेव यथारूपानुरक्त स्तथैव, दुःखौघ परम्पराः=उत्तरोत्तरदुःखसमूहान् उपैति = प्राप्नोति । तथा-प्रद्विष्टचित्तः= कर्षेण द्विष्टं प्रष्टिं चि यस्य स तथा द्वेषपरिपूर्णचित्तः सन् तत् कर्म चिनोति - उपार्जयति । तस्य - उपाज्जित्तकर्मणः, विपाके - अनुभवकाले, इह जन्मनि, परभवेचेत्यर्थः पुनर्दुखं भवति । इह - पुनर्दुःखग्रहणमैहिक दुःखापेक्षम्, अशुभकर्मोपचयश्च हिंसायासाविनाभावीति तद्धेतुत्वं द्वषस्यापि रागवदिति सूचितम् ॥ ३३ ॥ उत्तराध्ययनसूत्रे - इस प्रकार रूप के विषय में अनुराग अनर्थ का हेतु है यह बात यहां तक कही गई है अब उसमें द्वेष करना यह भी अनर्थ का हेतु है यह बात सूत्रकार कहते हैं - ' एमेव' इत्यादि । આ પ્રમાણે રૂપના વિષયને અનુરાગ અનર્થના ત્યાં સુધી બતાવવામાં આવી ગઇ છે. હવે એમાં દ્વેષ हेतु छेया वातने सूत्रार बतावे छे- “ एमेव " अन्वयार्थ - - (रूवम्मि-रूपे) अमनोज्ञ रूपके विषय में (पओसं गओप्रद्वेषं गतः ) प्रद्वेष करनेवाला मनुष्य (एमेव दुक्खोहपरम्पराओ उबेह-एवमेव दुःखौघपरम्पराः उपैति ) इसी तरह दुःखांकी परम्पराओं को प्राप्त करता है। (पट्टचित्तो य कम्भं चिणाइ- प्रदुष्टचित्तः कर्म चिनोति) द्वेषसे परिपूर्ण चित्त बना हुआ वह मनुष्य जिन कर्मों का बंध करता है ( से विवागे - तस्य विपाके ) उन कर्मों के विपाक समय में उसको (पुणो दुहं होइ - पुनः दुःखं भवति ) इस जन्म में तथा पर जन्म में दुःख ही मिलता है | गाथा में दुःख का दो बार ग्रहण करने से यह भाव प्रकट होता है। कि उसको भव-भव में दुःख ही भोगना पडता है। तथा अशुभ कर्मों का वह बंध करता है। जो बंध हिंसादि आस्रव के बिना नहीं होता હતુ છે આ વાત અહી’ કરવા એ પણ અનના त्याहि ! उत्तराध्ययन सूत्र : ४ अन्वयार्थ—रूबम्मि-रूपे अमनोज्ञ उपना विषयभां पओसं गओ - प्रद्वेष गतः अद्वेष उरवावाणी मनुष्य एमेव दुक्लोहपरंपराओ परम्पराः उपैति आ रीते हुमनी परंपराओने प्राप्त १२ते कम्मं चिणाइ- प्रदुष्टचित्तः कर्म चिनोति द्वेषथी नेनुं साइमे येसु छे मेवों से मनुष्य के मोनो बंध रे छे से विवागे तस्य विपाके उर्मोना विधाता सभये तेने पुणो दुहं होइ - पुनः दुःखं भवति मा भन्भभां દુઃખ જ મળે છે. ગાથામાં દુ:ખનું એ વખત ગ્રહેણુ કરવામાં આવેલ હેાવાથી એ ભાવ પ્રગટ થાય છે કે, એને ભવ-પરભવમાં દુ:ખ જ ભાગવવુ પડે છે. તથા અશુભ કર્મોના એ બંધ કરે છે. જે અંધ હિંસાદિ આસ્રવના વગર થતા उवेइ - एवमेव दक्खौघ रहे छे. पदुट्टचित्तो य भन परिपूर्ण भरा
SR No.006372
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size55 MB
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