SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 512
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तराम उत्तराध्ययनस्त्रे ___ उक्तमेवार्थ निगमयितुमाहमूलम्-रूवाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो सुहं होज कयाइ किंचिं। तत्थो पभोगेवि किलेसर्दुक्खं,निव्वत्तई जस्स कए ण दुक्खं ॥३२॥ छाया-रूपानुरुक्तस्य नरस्य एवं, कुतः सुखं भवेत् कदाचित् किञ्चित् ।। तत्रोपभोगेपि क्लेशदुःखं, निवर्तयति यस्य कृते खलु दुःखं ॥३२॥ टीका-रूवाणुरत्तस्स' इत्यादि । एवम् पूर्वकथितप्रकारेण, रूपानुरक्तस्य-रूपेऽनुरक्तः, रूपानुरक्तस्तस्य, नरस्य =पुरुषस्य, कदाचित् कस्मिन्नपि समये, किश्चित् अल्पमपि, सुख कुतो भवेत्-मुखं है। इस तरह दुःखी बना हुआ वह इस जन्ममें अनेक विडम्बनाओ से युक्त होकर अपने विनाश से तथा पर जन्म में नरक निगोदादिक की प्राप्ति के कारण अन्त में दुःखी बनता है। इस जन्म में भी उसका कोइ विश्वास नहीं करता “यह चोर है" इस तरह के अपवाद से उसका कोई भि पक्षपाती नहीं होता है। सब से तिरस्कृत होकर निरालम्ब निःसहाय बना हुआ वह सदा दुःखित ही होता है। यहां अदत्तादान उपलक्षण होने से मैथुन का भी ग्रहण होता है। तात्पर्य यह है कि अतृप्त व्यक्ति कदाचित् भी दुःखसे छुटकारा नहीं पा सकता प्रत्युत प्रतिसमय दुःखित ही बना रहता है ॥३१॥ इसी विषयों को फिर कहते हैं--'ख्वाणु०' इत्यादि। अन्वयार्थ-(एवं-एवम्) इस तरह (रूवाणुरत्तस्स नरस्स-रूपाणुरक्तस्य नरस्य) रूप में अनुरक्त हुए मनुष्य को (कयाइ किंचि सुहं कत्तो જીવ આ જન્મમાં અનેક વિટંબણાઓથી ઘેરાઈને પિતાના વિનાશથી તથા પર જન્મમાં નરક નિગોદાદિકની પ્રાપ્તિના કારણે અંતમાં દુઃખી બને છે. આ જન્મમાં પણ તેને કેઈ વિશ્વાસ કરતું નથી. “એ ચેર છે” આ પ્રકારના અપવાદથી એને કઈ પણ પક્ષપાત થતો નથી. બધાથી તિરસ્કૃત થઈને નિરાલમ્બ, નિઃસહાય બનેલ એ એ જીવ સદા દુઃખ અનુભવ રહે છે. અહીં અદત્તાદાન ઉપલક્ષણ હોવાથી મિથુનનું પણ ગ્રહણ થાય છે. તાત્પર્ય એ છે કે, અતૃપ્ત વ્યક્તિ કદી પણ દુઃખથી છુટકારો મેળવી શકતી નથી. એ દરેક સમયે દુઃખીતજ રહ્યા કરે છે. જે ૩૧ છે मा४ विषयाने इशथी ४ छ-"रूवाणु" त्यादि ! अन्या -एवं-एवम् २मा प्रमाणे रुवाणुरत्तस्स नरस्स-रूपानुरक्तस्य नरस्य ३५मा मनु२४॥ ५३॥ मनुष्यने कयाई किंचि सुहं कत्तो कदाचित् किञ्चित् सुखं उत्तराध्ययन सूत्र :४
SR No.006372
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size55 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy