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________________ ११२ उत्तराध्ययनसूत्रे छाया-स्थिरकरणात् पुनः स्थविरः" इति । तथा-गणधरः-गणस्य-ज्ञानादिगुणसमूहस्य धरः धारकः, विशारदः सकल शास्त्रनिष्णातः, मुनिः समस्तसावधव्यापारविरतिमान् , गर्गः गर्गनामाऽऽचार्य आसीत् । आकीर्णः आचार्यगुणैर्व्याप्तोऽत एव गणिभावे-आचार्यत्वे स्थितः स गर्गाचार्यः कर्मोदयात् कुशिष्यैः पुनः पुनस्रोटितमपि आत्मनः समाधि-चित्तस्वास्थ्यं प्रतिसन्धत्ते-संयोजयति ॥ १॥ __ स च समाधि सन्दधत् यद् विचारयति तदाहमूलम्-वहणे वहमाणस्स, कंतारं अइवत्तइ । जोएं वहमाणस्स, संसारं अइवत्तइ ॥ २॥ छाया-वहने वहमानस्य, कान्तारमतिवर्तते । योगे वहमानस्य, संसारोऽतिवर्तते ॥ २ ॥ अन्वयार्थ (थेरे-स्थविरः) संयममार्ग से विचलित जीवों को स्थिर करने के स्वभाव वाले-अर्थात् श्रुतचरित्ररूप धर्म से विचलित प्राणियों को उसी धर्म में पुनः स्थिर करने वाले तथा (गणहरे-गणधरः) ज्ञानादिक गुण समूह को धारण करनेवाले (विसारए-विशारदः) तथा सकलशास्त्रों के पारगामी (मुणी-मुनिः) समस्त सावध-व्यापारों के सर्वथा त्यागी ऐसे (गग्गे-गर्गः) गर्ग नाम के आचार्य (आसी-आसीत् ) थे। (आइण्णे-आकीर्णः) ये आचार्य के गुणों से युक्त थे । इसलिये (गणिभावम्मि-गणिभावे ) आचार्य पद पर विराजमान थे। ये गर्गाचार्य कर्मोदय से युक्त कुशिष्यों द्वारा पुनः२ विचलित अपनी समाधि कोचित्त की एकाग्रता को स्थिर करते रहते थे ॥१॥ मन्वयार्थ-थेरे-स्थविरः संयममाथी वियलित लवान स्थि२ ४२वाना સ્વભાવવાળા, અર્થાત-શ્રુતચારિત્રરૂપ ધર્મથી વિચલિત પ્રાણીને એજ ધર્મમાં शथी स्थि२ ४२वावाणा तथा गणहरे-गणधरः शान गुणुसभूड पारा ४२११७॥ विसारए-विशारदः तथा स लोना पा२॥भी, मुणी-मुनिः समस्त सावधव्यापाराना सवथा त्यागी मे गग्गे-गर्गः गगनभन ४ माया आसी-आसीत् ता. तो आइण्णे-आकीर्णः मायायन। गुथी युत ता. भाटे गणिभावम्मि-गणिभावे मायाय ५६ ७५२ मी२।४ भान ता. मे ગર્ગાચાર્ય કર્મોદયથી કુશિષ્ય દ્વારા ફરી ફરી વિચલિત પિતાની સમાધીને, અથત-ચિત્તની એકાગ્રતાને સ્થિર કરતા રહેતા હતા. / ૧ उत्तराध्ययन सूत्र:४
SR No.006372
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size55 MB
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