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प्रियदर्शिनी टीका अ. २३ श्रीपार्श्वनाथचरितनिरूपणम्
टीका--'साहु' इत्यादि।
___ अस्या व्याख्या पूर्ववत् ॥४४॥ संशयस्वरूपमाह-- मूलम्-अंतो हियय संभूया, लया चिट्टई गोयंमा।
फलेई विसभक्खीणं, सा उ उद्धरिया कहें ? ॥४५॥ छाया--अन्तर्हृदयसम्भूता, लता तिष्ठति गौतम !।
___फलति विषभक्ष्याणि, सा तु उद्धृता कथम् ? ॥४५॥ टीका--'अंतो हीयय' इत्यादि--
हे गौतम ! अन्तहृदयसंभूता-हृदयस्यान्तः, अन्तर्हदयं=मनः, तत्र समुभृता-समुत्पन्ना लता तिष्ठति । सा लता विषभक्ष्याणि-विषवद् भक्ष्यन्ते यानि तानि-विषोपमानि फलानि फलति-प्रसूते । सा लता तु त्वया कथम् उद्धृता उत्घाटिता ॥४५॥
गौतमः माहमूलम्-तं लयं सव्वसो छित्ता, उद्धरित्ता समूलियं।
विहरामि जहाँनायं, मुंकोमि विसभर्खणा ॥४६॥ प्रज्ञा बुद्धि (साहु-साधु) उत्तम है केसी श्रमण ने इस गाथा द्वारा गौतम की प्रज्ञा की प्रशंसा की है। तथा (मे-मे) मेरा (इमो-अयम्) यह (संसओ छिन्नो-संशयो छिन्नो) संशय नष्ट हुआ (मज्झं-मम) मुझे अन्नो वि संसओ-अन्योऽपि संशयः) अन्य भी संशय है (तं मे कहसु गोयम-तं मे कथय गौतम) उसका भी आप समाधान करें यह निवेदन किया है ॥४४॥
संशय का स्वरूप कहते हैं-'अंतो' इत्यादि।
हे गौतम ! हृदय के भीतर उत्पन्न हुए लता विष के समान फलों को उत्पन्न करतीहै। फिर वह आपने कैसे उखाडी ॥४५॥ साहु-साधु उत्तम छ. शीश्रमणे मा या द्वारा गौतमनी अज्ञानी प्रसंशा रेस छ. तथा भने मे-मे भारे। इमो-अयम् । संसओ छिन्नो-संशयो छिन्नो संशय नाश पाभ्ये। छ मज्झं अन्नोवि संशओ-मम अन्योऽपि संशयःवजी भने बीन सय छ જેથી આપ એનું નિરાકરણ કરે. એવું નિવેદન કરેલ છે. ૪૪
सशयना २१३५ने छ---"अंतो" त्याह!
હે ગૌતમ! હદયની અંદર ઉત્પન્ન થયેલા લતા વિષના જેવા ફળને ઉત્પન્ન કરે છે તે આપે એને કઈ રીતે ઉખેડી? ૪પા
उत्त२॥ध्ययन सूत्र : 3