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________________ प्रियदर्शिनी टीका अ. २३ श्रीपार्श्वनाथचरितनिरूपणम् जिणामिहं' इति कथनं भेदोपभेदसहिताः कषायादयो निता इति तदाशयं बोधति। अन्यथा दशसंख्यकशत्रुविजयेऽनेकसास्रशत्रुविजयः कथं संपद्येत ? । शत्रवोऽनेकानि सहस्राणि यथा सन्ति तथा प्रदश्यन्ते तत्र कषायाणां द्विशताधिकपञ्चसहस्राणि भेदाः सन्ति । क्रोध-मान-मायालोभाश्चत्वारः कपायाः। (१) एषां प्रत्येकमनन्तानुबन्ध्यादि भेदाचत्वारो भेदाः। तत्र चतुर्विधस्य क्रोधस्यैकसंख्यकसमुच्चयजीवेन चतुर्विशत्या दण्डकैश्च मिलित्वा पञ्चविंशत्या जब केशिश्रमण कुमार ने गौतम महामुनि से इससे पूर्व की गाथा में ऐसा पूछा था कि "अणेगाणसहस्साणं मझे चिट्ठसि गोयमा" तब उनके इस प्रश्न का उत्तर जो गौतम स्वामी ने ऐसा दिया है कि 'दसहा उ विजित्ता णं सव्वसन जिणामिह" सो इस से उनका ऐसा आशय ज्ञात होता है कि उन्हों ने मे प्रभेद सहित कषायों का जीतना ही प्रकट किया है। अन्यथा- जो ऐसा उनका अभिप्राय यहीं होता तो “दश शत्रुओं को मैंने जीत लिया है" यह कथन उन का कैसे संगत माना जा सकता। शत्रु अनेक हजार जिस प्रकार से हैं वह प्रकारता इस प्रकार है - (१) मूल में क्रोध, मान, माया एवं लोभ ये चार कषाय है-इन क्रोधादिक चार कषायों का सामान्य जीव सहित चौवीस दण्डकों के साथ अर्थात् इन पच्चीस के साथ गुणा करने पर १००--१०० सौ सौ भेद हो जाते है । अर्था । ये क्रोधादिक चार कषाय प्रत्येक अनंतानुबंधी अप्रत्याख्यान प्रत्या यान तथा संज्वलन के भेद से ४-४-४-४ रूप हैं-अनंतानुबंधी क्रोध, ' જયારે કેશી શ્રમણ કુમારે ગામ મહામુનીને આનાથી પહેલાની ગાથામાં એ प्रा२नु पूछे। तु, "अणेगाए सहस्साणं मझे चिट्टसि गोयमा" त्यारे सेमना से प्रश्न उत्तर गोतमस्वामीण सेवमापस छ है, "दसहा उ विजित्ताणं सबसत्तू जिणामिह" मानाथो मेमनी सेव। माशय मी शय छ ३. सभणे ભેદ પ્રભેદ સહિત કષાયે ને જીતવાનું જ પ્રગટ કરેલ છે. અન્યથા-જે એમને એ અભિપ્રાય ન થાત તે “દસ શત્રુઓને જીતી લેવાથી સઘળા શત્રુઓને મેં જીતી લીધા છે આ પ્રકારનું કહેવુ તેમનું કઈ રીતે સંગત માની શકાય. શત્રુ અનેક હજાર જેપ્રકારના છે. તેની પ્રકારના આ પ્રમાણે છે.--- (૧) મૂળમાં ક્રોધ, માન, માયાને લેભ આ ચાર કષાય છે. આ ક્રોધાદિક ચાર કષાયેનું સામાન્ય જીવ સહિત ચોવીસ દંડની સાથે અર્થાત્ આ પચીસની સાથે ગુણાકાર કરવાથી ૧૦૦-૧૦૦ ભેદ થઈ જાય છે. અર્થાત્ આ કોધાદિક ચાર કષાચ प्रत्ये: मनतानु धी प्रत्याभ्यान, प्रत्याध्यान,तथा ससनना नेहथी ४-४-४-४ ૧૧૬. उत्त२॥ध्ययन सूत्र : 3
SR No.006371
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1051
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size58 MB
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