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________________ ६५८ उत्तराध्ययन सूत्रे 'विवित्तलयणाणि' इत्यादि । त्रायी = त्राता - षट् कायजीवरक्षणपरायणः स समुद्रपालमुनिः निरुपलेपानि= द्रव्यतो भावतच लेपरहितानि - द्रव्यतः सञ्चर्थ न लिप्तानि अपि तु गृहस्थेन स्वार्थ लिप्तानि भावतो 'मदीयानीमानि स्थानानी' त्यभिष्वङ्गरूपले परहितानि, तथा - असंस्तुतानि, = शाल्यन्नबीजादिभिरव्याप्तानि अत एव महायशोभिः =मख्यातकीर्तिभिः ऋषिभिः=मुनिभिः चीर्णानि=आसेवितानि विविक्तलयनानि= स्त्रीपशुपण्डकवर्जितानि उपाश्रयरूपस्थानानि भजत् = आसेवितवान् - तत्र निवासं कृतवान । तथा-कायेन = शरीरेण परीषहान् = शीतोष्णादिपरीषहान् अस्पृशत् = सोढवान् । पुनः परीषहस्पर्शनाभिधानमतिशयख्यापनार्थम् ॥२२॥ फिर भी - 'विवित्त लयणाणि' इत्यादि । WH अत्वयार्थ - ( ताई - त्रायी) षट्काय के जीवों की रक्षा करने में तत्पर समुद्रपालमुनिराज (निरोवलेबाई - निरुपलेपानि) द्रव्य एवं भाव से लेप रहित - द्रव्य से साधु के लिये नहीं लीपे गये परन्तु गृहस्थों द्वारा अपने लिये लिपे गये, भाव से- "ये स्थान मेरे हैं" इस प्रकार से अभिवंगरूप से रहित तथा (असंथडाई - असंस्तुतानि) शालि अन्न आदि बीजों से अव्याप्त इसी से ( महायसेहिं असिहि चिण्णाई - महायशोभिः ऋषिभिः चीर्णानि ) महायशस्वी ऋषियों द्वारा-मुनियों द्वारा - सेवित किये गये ऐसे (विवित्तलयणाणि - विविक्तलयनानि) स्त्री, पशु, पंडक से रहित उपाश्रय रू स्थानों में ( भइज्ज - अभजत्) रहते थे । तथा (कायेण परिसहाई फासेज - कायेन परिषहान् श्रस्पृशत् ) शरीर से शीत उष्ण आदि परीषहों को सहते थे। परिषहों के सहन करने का पुनः यह कथन उनमें अतिशय ख्यापन करने के लिये जानना चाहिये ||२२|| छतां पष्- “विवित्तलयणाणि " धत्याहि. अन्ववार्थ - ताई - त्रायी षट्ायनः लवोनी रक्षा अश्वामां तत्थर समुद्रपास भुनिराज निरोवलेवाई - निरुपलेपानि द्रव्य भने भावथी होय रहित-द्रव्यथी साधुने માટે ન લીધેલા, પરંતુ ગૃહસ્થા તરફથી પેાતાના માટે લેપાયેલા ભાવથી “આ स्थान भाई छे.” था अारना अभिष्वंग३य बेच्थी रहित तथा असंथाडाई - असंस्तुतानि शासि अन्न याहि मीलेथी अव्याप्त साथी ४ महायसेहिं इसिहिं चिष्णाईमहायशोभिः ऋषिभिः चीर्णानि महायशस्वी ऋषियो द्वारा-मुनियों द्वारा सेवाभां यावेस वा विवित्तलयणाणि - विविक्तलयनानि स्त्री पशुपंउथी रहित उपाश्रय३५ स्थानोभां भइज्ज-अभजत् रहेता हता, तथा कारण परिसहाई फासेज्ज - कायेन परिषहान् अस्पृशत् शरीरश्री शीत, उष्णु आदि परीषहोने सडता बता. परीषहोने સહન કરવાનું કરી આ કથન તેમાં અતિશય ખ્યાપન કરવા માટે જાણવું જોઇએ. રા उत्तराध्ययन सूत्र : 3
SR No.006371
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1051
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size58 MB
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