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________________ १०२ उत्तराध्ययनसूत्रे सम्पति वीर्याचार प्रमादिनमाह-- मूलम्--संयं गेहें परिच्चज, परगेहँसि वावरे। निमित्तेण यं ववहर्रई, पावसंमणेति वुच्चइ ॥१८॥ छाया--स्वकं गेहं परित्यज्य, परगेहे व्यापृणोति । निमित्तेन च व्यवहरति, पापश्रमण इत्युच्यते ॥१८॥ टीका--'सयं गेहं' इत्यादि। यः साधुः स्वकं स्वकीयं गेहं परित्यज्य अगारं त्यक्त्वाऽनगारितां प्रतिपद्य परगेहे-गृहस्थगृहे व्याप्रियते-आहारार्थी सन् गृहस्थस्य कार्य करोतीत्यर्थः । च-पुनः निमित्तेन-शुभाशुभकथनेन व्यवहरतिद्रव्यमर्जयति । यद्वा-गृहस्थादिनिमित्तं क्रयविक्रयादिकं कुरुते । स पापश्रमण इत्युच्यते ॥१८॥ अतिनिन्दाका पात्र होता है। ऐसा जो साधु होता है (पावसमणेत्ति बुच्चइ-स पापश्रमण इत्युच्यते) वह पापश्रमण कहलाता है ॥१७॥ अब वीर्याचार में प्रमाद करने वालेका स्वरूप कहते हैं-'सयं' इत्यादि। अन्वयार्थ-जो साधु ( सयं गेहं-स्वकं गेहम्) अपने घरको छोडकर-मुनिव्रत धारण कर-(परगेहंसि वावरे-परगेहे व्याप्रियते ) गृहस्थ के घरपर आहारार्थी होकर उसका कार्यकरता है और (निमितेण य ववहरइ-निमित्तेन व्यवहरति) शुभ और अशुभ के कथनरूप निमित्त से द्रव्य को एकत्रित करता है अथवा गृहस्थ आदि के निमित्त क्रय विक्रयआदि करता है (से पावसमणेत्ति वुचइ-स पापश्रमण इत्युच्यते) वह साधु पापश्रमण कहलाता है ॥१८॥ पात्र मन छ मेवा रे साधु डाय छ ते पावसमणेत्ति वुच्चइ-स पापश्रमण इत्युच्यते તે પાપશ્રમણ કહેવાય છે. છા वे वियायामा प्रभा६ ४२वावाजानु २१३५ ४९ छ--"सयं" त्या ! अन्याय:-- साधु सयं गेहं-स्वकं गेहं पोताना धरने छ। भुनिव्रत धारय ४२॥ परगेहंसि वावरे-परगेहे व्याप्रियते स्थना २ माथी यधने मेनु म ४२ छ भने निमित्तण य ववहरइ-निमित्तन नवहरति शुभ तथा पशुस ४थन३५ નિમિત્તથી દ્રવ્યને એકત્રિત કરે છે. અથવા ગૃહસ્થ આદિન નિમિતે વિજય કરે છે से पावसमणेत्ति वुच्चर-सपापश्रमण इत्युच्यते ते साधु पापश्रम उपायछ.॥१८॥ उत्त२॥ध्ययन सूत्र : 3
SR No.006371
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1051
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size58 MB
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