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________________ ६३८ ____ उत्तराध्ययनसूने स्नातो भवान् पापैः प्रमुच्यते इति । अयं भावः-यथा भवन्मते यज्ञो यज्ञविधिश्चास्मद्विज्ञाताद् यज्ञाद् यज्ञविधेश्वान्यस्तथैव भवतो ह्रदः शान्तितीर्थ चाऽप्यस्मद्विज्ञाताद् इदात् शान्तितीर्थाचान्यदेव किम् ? इति । हे यक्षपूजित ! संयत! एतत्सर्वनोऽस्मान् अख्याहि कथय । वयं भवतः सकाशे एतत्सर्वं ज्ञातुमिच्छामः ॥४५॥ तेषां प्रश्नं श्रुत्वा मुनिराह मूलम्धम्मे हरणे बंभे संतितित्थे, अणाइले अत्तपसनलेस्से । हिंसि पहाओ विमलो विसुद्धो, सुसीइभूओ जहामि दोसं ॥४६॥ छाया-धर्मो हुदो, ब्रह्म शान्तितीर्थम् , अनाविलम् आत्मप्रसन्नलेश्यम् । यस्मिन् स्नातो विमलो विशुद्धः, सुशीतीभूतः प्रजहामि दोषम् ॥४६॥ आप पापों से छूट जाते हो ? ( जक्ख पूइया संजय-यक्षपूजित संयत ) हे यक्षपूजित मुनिराज! यह सब बातें हम (भवओ सगासे-भवतः सकाशे) आप से (नाउं-ज्ञातुम् ) जानने के लिये (इच्छामु-इच्छामः ) इच्छुक हो रहे हैं सो (अक्खाहि-आख्याहि ) बतलाईये ॥ भावार्थ-ब्राह्मणों को स्नान के विषय में पूछने की जिज्ञासा बढाने का कारण यह हुआ कि जिस प्रकार मुनिद्वारा प्रतिपादित यज्ञ, प्रसिद्ध यज्ञ से विलक्षण है उसी प्रकार इनके मतानुसार स्नान भी प्रसिद्ध स्नान से विलक्षण ही होगा अतः उन्हों ने मुनिराज से स्नान के विषय में इस प्रकार प्रश्न किया कि-महाराज वह जलाशय आप की दृष्टि में कौनसा है कि जिस में आप स्नान करते हैं । तथा ऐसा वह तीर्थ भी कौनसा है कि जिसमें स्नान करने पर पापों से छूटा जाता है ॥४५॥ छ। १ अर्थात् ४॥ या तायमा स्नात थ२. मा५ पायोथी छुटी छ ? जखपइया संजय-यक्षपूजित संयत में यक्ष पूछत मुनिरा ! २मा सघणी पातो सभी भवओ सगासे-भवतः सकाशे मायनी पासेथी नाउं-ज्ञातुं भाटे इच्छामुइच्छामः ४२छु भनी २ह्या छीमे तथा अक्खाहि-आख्याहि मा५ ते समान मता. ભાવાર્થ–સ્નાનના વિષયમાં પૂછવાની બ્રાહ્મણની જીજ્ઞાસા વધવાનું કારણ એ હતી કે, જે રીતે મુનિરાજ દ્વારા પ્રતિપાદિત યજ્ઞની પ્રસિદ્ધિ, યજ્ઞથી વિલક્ષણ સ્વરૂપે છે એજ રીતે એમના મત અનુસાર સ્નાન પણ પ્રસિદ્ધ સ્નાનથી વિલક્ષણજ હશે! આથી તેમણે મુનિરાજને સ્નાનના વિષયમાં આ પ્રકારને પ્રશ્ન કર્યો કે, મહારાજાએ જળાશય આપની દૃષ્ટિમાં કયું છે કે જેમાં આપ સ્નાન કરે છે? તથા એવું એ તીથ કયું છે કે જ્યાં સ્નાન કરવાથી પાપોથી છુટી જવાય છે? ૪૫ છે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૨
SR No.006370
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages901
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size49 MB
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