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प्रियदर्शिनी टीका अ. १२ हरिकेशवलमुनिचरितवर्णनम् पुनः प्रसादनामेवाह
मूलमबालेहिं मूढेहिं अयाणएहि, ज हीलिया तस्स खांह भंते !। महप्पंसाया इंसिणो हेवंति, ने है मुंणी कोवरा हवंति ॥३१॥ छाया-चालैमूढरजानद्भिर्यद् हीलितं, तस्य क्षमस्व भदन्त !।
महाप्रसादा ऋषयो भवन्ति, न खलु मुनयः कोपपरा भवन्ति ॥३१॥ ___टोका-' बालेहिं ' इत्यादि।
हे मुने ! बालैः शिशुभिः मूढः कषायमोहनीयोदयवशाद् विचित्ततां गतः, अत एव अजानद्भिः = हिताहित विवेकविकलैर्मदीयैश्छात्रैर्यद् भवतो हीलितं होने लगी। जिह्वा एवं नेत्र उनके बाहिर निकल आये। छात्रों की जब इस प्रकार की स्थिति रुद्रदेव पुरोहित ने देखी तो वह विशेष दुःखी हुआ। और ऋषि को किसी भी तरह प्रसन्न करने की चेष्टा करने लगा। उस समय भार्या सहित उस रुद्रदेव ने ऋषि से कहा कि हे महाराज ! आप सशिष्य मेरे अपराधों की क्षमा करो ॥२९ ॥३०॥ फिर प्रसन्नता के विषय में कहते हैं-'बालेहिं मूढेहिं'-इत्यादि ।
अन्वयार्थ-हे मुने ! (बालेहि-बोलः) बाल्यावस्थासंपन्न (मूढेहिमुरैः) तथा कषाय मोहनीय के उदय से भान भूले है इसीलिये (अयाणएहि-अजानद्भिः) हित और अहित के विवेक से सर्वथा विकल इन मेरे छात्रों ने (जं हिलिया-यत् हीलितम् ) जो आप की हीलना-अवज्ञा બહાર નીકળી પડ્યાં. શિષ્યોની આ સ્થિતિ જોઈ રૂદ્રદેવ પુરેહિત પૂબ શકા તુર બન્યા અને ત્રાષિને કઈ પણ ઉપાયથી પ્રસન્ન કરવાની ચેષ્ટા કરવા લાગ્યા. અને વળી પિતાની પત્ની સાથે ઋષિ પાસે જઈ હાથ જોડો પિતાના તેમજ શિના અપરાધની ક્ષમા માગવા લાગ્યા. તે ર૯ છે ૩૦ છે
હવે પ્રસન્નતાના વિષયમાં કહે છે– ‘बालेहिं मूढे ह' त्याह!
स-qयार्थ-डे भुनि! बालेहिं-बालैः माल्यावस्थाना रणे तेमा मूढेहि-मूः पाय मोडना यथी मान भूसे मने अयाणएहि-अजानद्भिः હિત તેમજ અહિતના વિવેકથી સર્વથા વિકળ એવા આ મારા છાત્રાએ जे हिलिया-यत् होलितम् मापने भूम अपमानीत ४२६ छे तमा ११
ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૨