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________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ. ११ गा० १-२ अबहुश्रुतत्वे कारणपञ्चकम् टीका-'जे यावि' इत्यादि । यो निर्विद्यः-शास्त्राभ्यासरहितः, चापि शब्दो भिन्नक्रमौ, तत्र च शब्दस्योत्तरत्र योगः । अपि शब्दात् सविद्योऽपि यः स्तब्धः अहंकारी, लुब्धः रसादिगृदिमान् , अनिग्रहः इन्द्रियनिग्रहणासमर्थः, च-पुनः अविनीतः विनयरहितः सन् अभीक्ष्णम्-वारंवारम् उल्लपति-उन्मदिं भाषते-शास्त्रमर्यादामतिक्रम्यभाषणं करो तीत्यर्थः । सः अबहुश्रुतः, एतद्विपरीतो बहुश्रुतो विज्ञेय इति गाथाऽऽशयः ॥२॥ ___अ बहुश्रुतत्वे कारणमाहइस भाव से प्रथम अबहुश्रुत का स्वरूप सूत्रकार कहेते हैं 'जे यावि होइ निविज्जे' इत्यादि । ___ अन्वयार्थ (जे निविज्जे-होइ-यश्च निर्विद्यः भवति ) जो शास्त्र के अभ्याससे रहित होता है (अवि-अपि) तथा शास्त्र के अभ्याससे युक्त भी होता है, परन्तु यदि वह (थधे-स्तब्धः) अहंकारी है (लुद्धे-लुब्धः ) रसादिकों में गृद्ध बना हुआ है (अणिग्गहे-अनिग्रहः) इन्द्रियों के निग्रह करने में असमर्थ है और (अविणीए-अविनीतः) विनय धर्म से रहित होकर (अभिक्वणं उल्लवई-अभीक्ष्णं उल्लपति ) वारंवार शास्त्रमर्यादा का भी ध्यान न करके यद्वा तद्वा भाषण करता है बोलता चालता है वह ( अबहुस्सुए-अबहुश्रुतः) अबहुश्रुत हैं-इससे भिन्न बहुश्रुत है। भावार्थ-चाहे शास्त्रीय ज्ञानसे संपन्न हो चाहे न हो यदि वह स्तब्ध, लुब्ध एवं इन्द्रियों का दास है और विनय धर्म से सहित होकर जो मन में आता है वैसा ही बोलता है वह अबहुश्रुत है ॥२॥ समहुश्रुतर्नु २५३५ प्रट रे छ.-" जे यावि होइ निधिज्जे "-त्याह. स-क्याथ-जे निविज्जे होइ-यश्च निर्विधः भवति य शासना मल्यासथीडित य छ, (अवि-अपि) तथा शाखाना सल्यास डोपा छतi ५५ रे। (थ धे-स्तब्धः) मारी डाय छे. लुध्धे-लुब्धः २साहिमो सासाव डाय छ, अणिग्गहे-अनिग्रहः ।न्द्रियान १२ रामपाने असमर्थ हाय छ, भने अविणीए-अविनीतः विनय धर्मथी २डित थईने अभिक्खणं उल्लवईअभीक्ष्ण उल्लपति पारवा शाल भयौहानु ध्यान राथ्या विना मे तम भाषण ४२ छ, मावे या छ । अबहुस्सुए-अबहुश्रुतः मम श्रुत छ. तेनाथी ભિન્ન જે છે તેઓ બહુશ્રત છે. ભાવાર્થશાસ્ત્રનું જ્ઞાન ધરાવનાર હોય કે ન હોય પણ જે અહંકારી, લાલચુ, ઈન્દ્રિઓના દાસ, અને વિનય ધર્મથી રહિત થઈને મનમાં આવે તેમ બોલનાર હોય છે તે અબહુત કહેવાય છે. ૨ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૨
SR No.006370
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages901
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size49 MB
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