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________________ उत्तराध्ययनसूत्रे ये मनुष्याः, अमति कुमनि, गृहीत्वा अङ्गीकृत्य, पापकर्मभिः प्राणातिपा. तादिभिः धनं-द्रव्यं समाददते-उपार्जयन्ति, ते पाशमवृत्ताः-पाशेषु-बन्धनेषुबन्धन-हेतुत्वात् पुत्रकलादिषु प्रवृत्ताः आसक्ताः, वैरानुबद्धाद्वेषानुबद्धाः, नराः =पुरुषाः धनं विहाय नरकं = रत्नप्रभादिकम् , उपयान्ति-गच्छन्ति । कृषि वाणिज्य आदि पाप कर्मों द्वारा (धणं समाययंति धनं समाददते) द्रव्य उपार्जित करते हैं-धन कमाते हैं (ते पासपयट्टिए-ते पाशप्रवृत्ताः) वे पुत्रकलत्रादिरूप बन्धनो में जकडे रहते हैं। इस संसार में (वेराणु यद्धा-वैरानुबद्धाः ) वैर का अनुबन्ध करते हुए वेष से युक्त बनकर वे (नरा-नराः) मनुष्य (पहाय-प्रहाय ) धनादि को छोडकर (नरयं उविति-नरकं उपयान्ति) मर कर रत्नप्रभादिक पृथिवियों में उत्पन्न होते हैं। इसका आशय यह है-जो प्राणातिपतादि से द्रव्य को उपार्जन करनेवाले हैं, वे स्त्री आदि में रत होकर रागद्वेष के संबंधसे नरकों में जाते हैं। परभवजानेवाले जीव के साथ कुछ धन तो जाता नहीं है, किन्तु यह अकेला जीव ही महा आरम्भ एवं महा परिग्रह के संग्रह करने से पाप के फल को भोगने के लिये नरक में जाता है । इसलिये इस भव में ही वध, बंध, और मारण का कारण होने से और परभव में नरक प्राप्ति का हेतु होने से अर्थ वास्तविक दृष्टि से पुरुषार्थ नहीं है ऐसा समझ कर जीव को धर्म के प्रति प्रमाद नहीं करना चाहिये। ५।५ ॥२॥ धणं समाययंति-धनं समाददते द्रव्यनुं उ न ४रे छ. धन भाय छे ते पासपयट्टिए-ते पाशप्रवृत्ताः ते पुत्र साहि३५ अधनामा १४ २७ छ. मन ॥ संसारमा वेराणुबद्धा-वैरानुबद्धाः वैरन। मनुषध ४२di १२di मत रागद्वेषथी १२५२ मनी नरा-नराः ते मनुष्य पहाय-प्रहाय धन माहिने छोडन भरीने नरयं उविति-नरकं उपयान्ति भने पछी रत्नला વિગેરે નરકોમાં ઉત્પન્ન થાય છે. આને આશય એ છે કે-જે દ્રવ્યનું ઉપાર્જન કરવાવાળા છે તે સ્ત્રી આદિમાં આસક્ત બનીને રાગદ્વેષના કારણે નરકામાં જાય છે. આ દેહને છોડી બીજા ભવમાં જનારની સાથે ધન તે જતું નથી. ફક્ત તે એકલે જીવ જ મહાઆરંભ અને મહાપરિગ્રહ સંગ્રહ કરવાથી પાપના ફળને ભેગવવા માટે નરકમાં જાય છે. આટલાં જ માટે આ ભવમાં જ વધ, બંધ, મારણનું કારણ હોવાથી અને પરભવમાં નરક પ્રાપ્તિને હેતુ હોવાથી ધન વાસ્તવિક દૃષ્ટિથી પુરૂષાર્થ નથી એવું સમજીને જીવે ધર્મ કરણી તરફ દુર્લક્ષ પ્રમાદ ન કરે ઈ એ. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૨
SR No.006370
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages901
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size49 MB
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