________________
१३३
प्रियदर्शिनी टीका अ० ५ गा. ७ अकाममरणवर्णनम् कथंचित् परलोकप्रत्यये जातेऽपि बालेन कामाः परिहर्तुमशक्या इत्याह
भूलम् जणेण सद्धि होक्खामि, ईइ बाले पगभई ।
कामभोगाणुराएणं, केसं संपडिजई ॥७॥ छाया-जनेन साध भविष्यामि, इति बालः प्रगल्भते ।
कामभोगानुरागेण, क्लेशं संप्रतिपद्यते ॥७॥ टीका-'जणेण सद्धिं' इत्यादि ।
जनेन लोकेन साध सह भविष्यामि, अयं भावः-अधिकतरो लोकः खलु भोगासक्तोऽस्ति, तस्य या गतिः स्यादहमपि तां गतिं गमिष्यामि, इति बाला=
भावार्थ-विषयभोगों में लोलुप बने हुए अज्ञानी प्राणी यह विचारा करते हैं कि जो कुछ इस भव में हस्तगत हो रहा है, वही सब कुछ है । परलोक का तो कोई निश्चय ही नहीं है । ऐसी स्थिति में प्राप्त का परित्याग कर अप्राप्त की आशा करना केवल दुराशामात्र है। ऐसे जीवों का जो मरण है वह अकाममरण है ॥६॥
किसी प्रकार से लोकसंबंधी विश्वास जम भी जावे तो भी जो बालजन हैं, उनके द्वारा काम का परिहार (त्याग) करना अशक्य हैं यह बात सूत्रकार इस गाथाद्वारा स्पष्ट करते हैं-'जणेण सद्धिं '-इत्यादि। ___ अन्वयार्थ-(जणेण-जनेन ) मैं लोक के (सद्धि-सार्ध) साथ (होक्खामि-भविष्यामि) रहूंगा-अर्थात् अधिकतर लोक भोगों में आसक्त हो रहे हैं-अतः इनकी जो गति होगी वही गति मेरी भी हो
ભાવાર્થ_વિષયભેગમાં લોલુપ થયેલ અજ્ઞાની પ્રાણી એ વિચાર કરે છે કે, આ ભવમાં જે કાંઈ હાથમાં આવેલ છે તેમાંજ જે છે તે બધું જ છે, પરલોકનો તો કઈ નિશ્ચય પણ નથી, હોય પણ ખરો અને ન પણ હોય. આવી સ્થિતિમાં પ્રાપ્ત થયેલા સુખને પરિત્યાગ કરી અપ્રાપ્તની આશા કરવી એ જાંજવાના જળ જેવું છે, આ પ્રકારની માન્યતા ધરાવનાર જીવનું જે भ२६१ थाय छे ते मम भरण छ. ॥६॥
કઈ પ્રકારે પરલોક છે એ વિશ્વાસ, શ્રદ્ધા પણ કદાચ બેસી જાય તે પણ જે અજ્ઞાની –બાલજન છે તેનાથી કામને ત્યાગ થ એ ઘણે જ દુર્લભ છે. से पातन सूत्रा२ २॥ ॥था द्वारा सभी छ-"जणेण सद्धि" प्रत्याहि!
सन्क्याथ-सा भास तो सेभ ४९ छ, जणेण-जनेन हुत सानी सद्धि-सार्धं साथे होक्खामि-भविष्यामि २डीश-मर्थात् माटो लागना
ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૨