SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 123
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०८ उत्तराध्ययनसूत्रे पुनरप्याह- मूलम्खिप्पं ने सकेई विवेगमेङ, तम्हा समुंहाय पहाय कामे । समेच्छे लोग समया मडेसी अप्पाणरक्खी नै चरेप्पमत्ते॥१०॥ छाया-क्षिप्रं न शक्नोति विवेकमेतुं, तस्मात् समुत्थाय प्रहाप कामान् । समेत्य लोकं समतया महर्षिः, आत्मरक्षीव चरेद् अप्रमत्तः ॥ १० ॥ टीका-'खिप्पं न ' इत्यादि। हे शिष्य ! आत्मा क्षिप्रं शीघ्र, विवेकं द्रव्यतो बाह्यविषयसंगपरित्यागरूपं, भावतः-कषायपरिहारात्मकम् , एतुम्=प्राप्तुं न शक्नोति । तस्मात् समुत्थाय= 'पश्चादू धर्म करिष्यामि' इत्यालस्यपरिवजनेन उद्यमं कृत्वा, कामान् शब्दादिप्रमाद का परिहार कर देना चाहिये। तात्पर्य यह है कि जो साधु संयम में पहिले से प्रमादी बना रहता है वह अन्त में प्रमादी नहीं होगा यह नहीं कहा जा सकता अतः पहिले से ही इसके परिहार का प्रयत्न करते रहना चाहिये । 'धर्म पीछे करेंगे' यह तो उन निरुपक्रम आयुष्य वाले ज्ञानियों की यात है, हमारे जैसे छमस्थों की नहीं ॥९॥ फिर भी कहते हैं-'खिप्पं न सक्केइ'-इत्यादि। ___ अन्वयार्थ हे शिष्य ! (विवेगं-विवेकम् ) द्रव्य की अपेक्षा बाह्य विषय के सग के परित्यागरूप, और भाव की अपेक्षा कषायों के परित्यागरूप विवेक को (खिप्पं-क्षिप्रं ) शीघ्र (एउं-एतुम् ) प्राप्त करने के लिये (न सक्केइ-न शक्नोति) समर्थ नहीं हो सकता है। (तम्हा समुहायतस्मात् समुत्थाय ) इसलिये 'पीछे की उमर में धर्म करूंगा' इस प्रकार का આટલા માટે પહેલાં અને પછીથી પણ સર્વદા પ્રમાદ રહિત જ રહેવું જોઈએ. તાત્પર્ય એ છે કે-જે સાધુ સંયમમાં પહેલેથી પ્રમાદી બની રહે છે. તે અંત સમયે પણ પ્રમાદિ નહિ બની રહે તે કહી શકાય નહિ. માટે પહેલેથી જ તેણે પ્રમાદ છોડવાનો પ્રયત્ન કરતા રહેવું જોઈએ. “ધર્મ પછી કરીશ” એ તે એવા નિરૂપકમ જ્ઞાનીઓની વાત છે. અમારા જેવા છદ્મસ્થની નહીં ! ૯ છે श्री ५४ छ-"खिप्पं न सक्के" छत्याहि. अन्वयाथ-डे शिष्य ! मात्मा विवेग-विवेकम् द्रव्यनी मवेक्षा माह વિષયના સંગના પરિત્યાગરૂપ અને ભાવની અપેક્ષાએ કષાના પરિત્યાગ રૂપ वि ने खिप्पं-क्षिप्रं शीघ्र एउ-एतुम पास ४२१॥ भाटे न सक्केइ-न शक्नोति समय य ता नथी. तम्हा समुहाय-तस्मातू समुत्थाय माटा भोट पासी भरमा ધર્મ કરીશ” એ પ્રકારના વિચારરૂપી જે પ્રમાદ છે તેને પરિહાર કરી જે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૨
SR No.006370
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages901
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy