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वह अवश्य डूब ही जाता है, इसी प्रकार नाइट्रोजन और ओक्सीजन के मिश्रण विना विजली प्रगट नहीं होती उसी प्रकार ज्ञान के होते हुए भी क्रिया विना मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती, इसी लिए भगवानने इस दशवैकालिक सूत्र में मुनिको ज्ञान सहित अचार धर्म को पालन करनेका निरूपण किया है ।
जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराज साहेब दशवेकालिक सूत्र की आचारमणिमञ्जूषा नाम की टीका तैयार करके सर्व साधारण एवं विद्वान् मुनियो के अध्ययन के लिये पूर्ण सरलता कर दी है, पूज्य श्री के द्वारा जैनागमों की लिखी हुई टीकाओ में श्री वैकालिक सूत्रका प्रथम स्थान है । इस के दश अध्ययन हैं
(१) प्रथम अध्ययन में भगवानने धर्म का स्वरूप अहिंसा संयम और तप बतलाया है। इस की टीका में धर्म शब्द की व्युत्पत्ति और शब्दार्थ तथा अहिंसा संयम और तप का विवेचन विशदरूपसे किया है । वायुकाय संयम के प्रसंग में मुनि को सदोरक मुखवस्त्रिका मुखपर बाँधना चाहिये इस बात को भगवती सूत्र आदि अनेक शास्त्रों से तथा ग्रन्थों से सप्रमाण सिद्ध किया है। मुनि के लीए निरवद्य भिक्षा लेनेका विधान है। तथा भिक्षाके मधुकरी आदि छह भेदो का निरूपण किया है ।
(२) दूसरे अध्ययन में संयम मार्ग में विचरते हुए नवदीक्षित का मन यदि संयम मार्ग से बहार निकल जाय तो उसको स्थिर करनेके लिये रथनेमि और राजीमती के संवाद का वर्णन है । एवं त्यागी अत्यागी कौन है वह भी समझाया है ।
(३) तीसरे अध्ययन में संयमी मुनि को बावन (प२) अनाचीर्णो का निवारण बतलाया गया है, क्यों कि बावन अनाचीर्ण संयम के घातक हैं । इन अनाचीर्णो का त्याग करने के लिये आज्ञा निर्देश है। (४) चौथे अध्ययन में- 'जो बावन अनाचीर्णो का निवारण करता है वही छह काया का रक्षक हों सकता है' इसलिये छहकाय के स्वरूप का निरूपण तथा उनकी रक्षा का विवरण है । मुनि अतना को त्यागे यतना को धारण करे यतना मार्ग वही जान
શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૨