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________________ आचारमणिमञ्जूषा टीका, अध्ययन ६ चारगोचरवतां साधुसिंहानां सविधे कर्ममृगा न स्थातुं प्रभवन्तीति चोतितम् । 'सयलं' इत्यनेन संपूर्णकथनमन्तरेण तत्त्वनिर्णयो न सम्यग् भवतीत्यावेदितम् । 'दुरहिटियं' इति पदेन गुरुकर्मणामयोग्यानां च दुःसेव्यमेतत् , न तु लघुकर्मणाम् , इति व्यक्तीकृतम् ॥ ४ ॥ आचारगोचरस्य गौरवं प्रदर्शयतिमूलम् नन्नत्थ एरिसं वृत्त, जे लोए परमदुच्चरं । विउलट्टाणभाइस्स, न भूयं न भविस्सइ ॥५॥ छाया-नान्यत्र ईदृशम् उक्तं, यत् लोके परमदुश्चरं । विपुलस्थानभाजिनः, न भूतं न भविष्यति ॥ ५ ॥ टीका-'नन्नत्थ' इत्यादिविपुलस्थानभाजिना=विपुलो महाफलमोक्षहेतुत्वात्संयमस्तस्य स्थान 'आयारगोयरं' पदसे यह ध्वनित होता है कि प्रश्नके अनुकूल वाक्य प्रयोगसे और आगमकी परिभाषासे श्रोताओंका सुनने में अनुराग बढता है। 'भीम' पदसे यह सूचित किया है कि आचार गोचरवाले साधु सिंहोंके सामने कर्मरूपी हिरन नहीं ठहर सकते। 'सयलं' पदसे पूरा कथन किये बिना तत्वका निर्णय नहीं हो सकता, यह प्रगट किया है, तथा 'दुरहिटियं पदसे यह सूचित किया गया है कि आचारका पालन करना गुरुकर्मी (भारी कर्मवाले) जीवोंको कठिन है और लघुकर्मी जीवोंको सुलभ है ॥४॥ अब आचार गोचरका गौरव (महत्त्व) बताते हैं'ननत्थ' इत्यादि। अखण्ड चारित्र पालनेवाले अथवा अनन्त सुखका स्थान અને આગમની પરિભાષાથી શ્રોતાઓને અનુરાગ સાંભળવામાં વધે છે. મોમ શબ્દથી એમ સૂચિત કર્યું છે કે આચારગોચરવાળા સાધુ સિહની સામે કર્મરૂપી ४२९१ नi Pी Ardi नथी. सयलं २५४थी मेम ४८ ज्यु छ यूई ४थन ४ा विनत निलय थप तो नथी. दुरहिद्वियं शहथी सेभ सूथित ४यु छ । આચારનું પાલન કરવું ગુરૂકમી (ભારેકમી) જેને માટે કઠિન છે, અને લધુકમાં ७वाने भाट सुखम छ. (४). हवे मायागोयनुं गौरव (भा) मताव छ-'ननस्थ' त्याहि. અખંડ ચારિત્ર પાળનારા અથવા અનંત સુખનું સ્થાન હોવાથી વિપુલ સ્થાન શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રઃ ૨
SR No.006368
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages287
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size15 MB
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