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________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू० ३२ चन्द्रसूर्यादीनामल्पबहुत्वनिरूपणम् ५२९ गच्छंति' परिभोग्यतया तेषां प्रयोजने समुत्पन्नेसति 'हवं' शीघ्रमागच्छन्ति-उपभोक्तु तत्समीपमुपसर्पन्तीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहण्णपए अट्ठावीसं' जधन्यपदे अष्टाविंशतिः पश्चेन्द्रियरत्नानि परिभोग्यतया शीघ्रामागच्छन्ति, एकसमये चतुर्णामेव चक्रवर्तिनां सद्भावात् अष्टाविंशती रत्नानि भवन्तीति । 'उक्कोसपए दोणि दसुत्तरा पंचिंदियरयणसया परिभोगत्ताए हव्यमागच्छंति' उत्कृष्टपदे-सर्वोत्कृष्टस्थाने द्व दशोत्तरे-दशाधिके पश्चेन्द्रियरत्नशते परिभोग्यतया शीघ्रमुपभोक्तु चक्रवर्तिन-समीपमागच्छन्तिसमुपसर्पन्ति-इति । ___ सम्प्रति-एकेन्द्रियरत्नानि प्रश्नयितुमाह-'जंबुद्दीवे णं भंते' इत्यादि, 'जंबुद्दीवेणं भंते !: दीवे' जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे सर्वद्वीपमध्य जम्बूद्वीपे इत्यर्थः 'केवइया' कियन्तिकियत्संख्यकानि 'एगिदियरयणसया' एकेन्द्रियरत्नशतानि तत्रैकेन्द्रियरत्नशतानि-चक्रवर्तिनां चक्रादीनि तेषां शतानि 'सबग्गेणं पन्नत्ता' सर्वाग्रेण सर्वसंख्यया प्रज्ञप्तानि-कथितानि, सूत्रद्वारा प्रभु से ऐसा पूछा है कि हे भदन्त ! इस जम्बूद्वीप नामके द्वीप में जघन्य पद में एवं उत्कृष्टपद में कितने सौ पंचेन्द्रिय रत्न प्रयोजन के उत्पन्न होने पर काम में लाये जाते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! जहण्णपए अट्टाबीसं, उक्कोसपए दोणि दसुत्तरापंचिंदियरयण सया परिभोगत्ताए हव्यमाच्छति' हे गौतम! जघन्य पद में २८ पंचेन्द्रिय रत्न प्रयोजन के उत्पन्न होने पर काम में लाये जाते हैं क्यों कि जघन्य पद में एक समय में चार हो चक्रवर्तियों का सद्भाव होना प्रकट किया जाचुका है इसलिये ७को चार से गुणा करने पर २८ होते हैं तथा उत्कृष्ट पद में २१० पंचेन्द्रिय रत्न प्रयोजन के उत्पन्न होने पर काम में लाये जाते हैं। 'जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइया एगिदिय रयणसया सव्वग्गेणं पण्णता' हे भदन्त ! इस जंबूद्वीप नाम के द्वीप में चक्रवर्तियों के चक्रादिक एकेन्द्रिय रत्न सर्वाग्र से-सर्वसंख्या से-कितने सौ कहे गये हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं આ સૂત્ર દ્વારા પ્રભુને આ પ્રમાણે પૂછ્યું છે કે હે ભદન્ત ! આ જમ્બુદ્વીપ નામના દ્વીપમાં જઘન્ય પદમાં અને ઉત્કૃષ્ટ પદમાં કેટલા સે પંચેન્દ્રિય રત્ન પ્રજનના ઉત્પન્ન થવા माममा सावधामा मावे छ? साना उत्तरमा प्रभु हे छे-'गोयमा ! जहण्णपए अट्ठावीसं, उक्कोसए दोण्णि दसुत्तरा पचि दियरयणसया परिभोगत्ताए हव्वमागच्छति' ३ ગૌતમ ! જઘન્ય પદમાં ૨૮ પંચેન્દ્રિય રતન પ્રયજન ઉત્પન્ન થયેથી કામમાં લાવવામાં આવે છે કારણ કે જઘન્ય પદમાં એક સમયમાં ચાર જ ચક્રવતીઓને સદૂભાવ હોવાનું પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે આથી ૭ ને ૪ થી ગુણવાથી ૨૮ થાય છે તથા ઉત્કૃષ્ટ પદમાં २१० ५येन्द्रिय रत्नप्रयागनना Gत्पन्न वाथी ममा तापी शय छे. 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे केवइया एगेदिय रयणसया सब्बग्गेणं पण्णत्ता' 3 महन्त ! मापूदीप नामना દ્વિીપમાં ચક્રવર્તીઓના ચક્રાદિક એકેન્દ્રિય રત્ન સર્વાચથી-સર્વસંખ્યાથી-કેટલા સો કહે ज०६७ જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006356
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages567
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size35 MB
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