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________________ ४८० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे मना स्फटिकमयानि सुजातानि जन्मदोषवर्जितानि दन्तमुशलानि तैरुपशोभितानाम् गजानाम् 'चकोसी पतिगविमलमणिरयण रुइल पेरं तचित्तरूवगविराइयाणं' काञ्श्चन कोशीप्रविष्टदन्ताग्रविमलमणिरत्न रुचिर पर्यन्त चित्ररूपकविराजितानाम्, तत्र - विमलमणि रत्नमयानि रुचिराणि पर्यन्त चित्ररूपकाणि अर्थात् कोशी मुखवर्तिनि तैर्विराजिता या कांचantar पोलिका तस्यां प्रविष्टा दन्ताग्रा अग्रदन्ता येषां ते तथा तादृशानाम्, प्राकृतत्वात्पदव्यत्ययः । 'तवणिज्ज विसाल तिळगप्पमुहपरिमंडियाणं' तपनीयविशाल तिलकप्रमुख परिमण्डितानाम्, तत्र - तपनीयमयानि विशालानि च तिलकप्रमुखाणि यानि मुखाभरणानि तैः परिमण्डिताना मुपशोभितानाम् 'णाणामणिरयणमुद्ध गेविज्जबद्धगलयवर भूसणाणं' नानामणिरत्न मूर्द्धग्रैवेयक बद्धगलकवर भूषणानाम्, तत्र नानामणिरत्नमयो मूर्द्धा येषां ते तथा, ग्रैवेयकेन सह बद्धानि गलकवर भूषणानि कण्ठाभरणानि घण्टादीनि येषां ते तथा, तत्र पदद्वयस्य कर्मधारयः तेषाम् 'वेरुलियाविचितदंड निम्नल वइरामय तिक्खलट्ठ अंकुसकुंभ जुगलयंतरोडियाणं' वैडूर्यविचित्रदण्ड निर्मल वज्रमय तीक्ष्णलष्टाङ्कुश कुम्भयुगलान्वरो जो व्रण रहित एवं दृढ़ होते हैं, सर्वात्मना स्फटिकमणिमय होते हैं, एवं सुजात-जन्म संबंधी दोषों से रहित होते हैं, 'कंचनकोसी पविट्ठ दंतगविमल मणि रयण रुइल पेरंतचित्त स्वगविराइया णं' यहां प्राकृत होने से पदों का व्यत्यय हुआ है - अतः इस प्रकार से इसे लगाना चाहिये कि इनके जो दन्ताग्र थे वे काञ्चन कोशी सोने की बनी हुई एक प्रकार की चूडी से युक्त थे अर्थात् वह कञ्चन चूडी - पोलिका विमल मणि रत्नों से जड़ी हुई थी, रुचिर थी, तथा इसकी सब ओर अनेक प्रकार के चित्र बने हुए थे 'तवणिजविसालतिलगप्पमुह परिमंडिया' ये हाथी तपनीयमय तथा विशाल ऐसे तिलकादि मुखाभरणों से उपशोभित थे, 'णाणामणिरयणमुद्धगेविजबद्गलयवर भूसणाणं' इनका मस्तक अनेक मणि और रत्नों से सुसज्जित था तथा ग्रैवेयक के साथ २ इनके कंठ में घंटा आदि अनेक आभरण पहिराये हुए थे, 'वेरुलिय विचित्त दंडनिम्मल જે ત્રણ રહિત અને દૃઢ હાય છે, સર્વોત્ખના સ્ફટિકમણિમય હોય છે અને સુજાત संबंधी दोषोधी रहित होय छे, 'कंचनको सीपविट्ठदंतग्गविमलमणिरयणरुइल पेरंतचित्तरुवगविराइया णं' अहीं आवृत होवाथी पहोना व्यत्यय थयो छे साथी खेवी રીતે એમને લાગુ પાડવા જોઇએ કે એમના જે તામ્ર હતા તે કાંચનકશી-સાનાની ખનેલી એક પ્રકારની બંગડીથી યુક્ત હતાં. અર્થાત્ તે કાંચનમગડી-પેાલિકા-વિમલમણિ રત્નાથી જડેલી હતી, રુચિર હતી તથા એમની ચારે તરફ અનેક પ્રકારના ચિત્ર મનાवेद्या हृतां. 'तवणिज्जविसालतिल गप्पमुह परिमंडियाणं' या हाथी तपनीय भय तथा विशाण मेवा तिसअधि भुपालरशोथी उपशोलित हतां, 'णाणामणिरयणमुद्धगेविज्जबद्ध गलयवरभूसणाणं' भना भक्त मणि सने रत्नोथी सुसन्न्ति हृतां તથા ત્રૈવેયકની સાથે સાથે એમને કઠમાં ધ્રઢ આદિ અનેક मला हेरावेला हतां 'वेरुलिय જન્મ જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006356
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages567
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size35 MB
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