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________________ २३४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे समुद्रे उदयमासादयतीति तन्मतं निराकृतं भवतीति । एतस्य प्रश्नस्योत्तरं सूत्रकारोऽतिदेशमुखेनाह - 'जहा पंचम ए' इत्यादि, 'जहा पंचमसए पढमे उद्देसे यथा पञ्चशतके प्रथमोदेश, एतस्यैव जम्बूद्वीपस्य पञ्चमशत के प्रथमोदेशके कथितं तेनैव प्रकारेणात्रापि सूर्यस्योदयास्तमयनं ज्ञातव्यम्, कियत्पर्यन्तं पञ्चमोदेशकस्य प्रथमोद्देशकप्रकरणमिह वक्तव्यं तत्राह'जाव' इत्यादि, 'जाव णेवत्थि उस्सप्पिणी अट्ठिएणं तत्थ काले पनते समणाउसो' यावन्नैवास्ति उत्सर्पिणी अवस्थितः खलु तत्र कालः प्रज्ञप्तः श्रमण। युष्मन् ! एतत्सूत्रपर्यन्तं पञ्चमशतकस्य प्रथमोदशकस्य प्रकरणमनुसन्धेयम्, तथाहि तत्रत्यं प्रकरणम् 'जयाणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दाहिणद्धे दिवसे भवइ तयाणं उत्तरद्धे वि दिवसे भवइ । जयाणं भंते ! उत्तरद्धे दिवसे भवइ तयाणं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरिस्थिमपञ्चत्थिमेणं राई भवइ ? हंता गोयमा ! जयाणं जंबुद्दी वे दीवे दाहिणदे दिवसे जाव राई भवइ । जयाणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे मदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमेणं दिवसे भवइ तयाणं पच्चत्थिमेणवि दिवसे भवइ, जयाणं पञ्चस्थिमेणं दिवसे भवइ तयाणं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस पव्वयस्स उत्तरदाहिणेणं र ई भवइ । हंता, गोयमा ! जयाणं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरस्थि मेणं दिवसे जाव राई भवइ । जय णं भं ! जंबुद्दीवे दीवे दाहि द्धे उकोसए अद्वारसमुहुते दिवसे भवइ, तयाणं उत्तरद्धे वि उक्कोसए अट्ठारसमुहुते दिवसे भवइ, जयाणं उत्तरद्धे उक्कोसए अहारसमुहुते दिवसे भवइ तयार्ण जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स या अधोगति नहीं कहो गई है। इसलिये जो ऐसा मानते हैं कि "सूर्य पश्चिम समुद्र में प्रवेश करके पातालमार्ग से होकर, पुनः पूर्व समुद्र में उदित होता है" सो इस सैद्वान्तिक कथन से उनका इस प्रकार का कथन निरस्त हो जाता है। इस प्रश्न का उत्तर सूत्रकार ने इस अतिदेशमुख के द्वारा दिया है- 'जहा पंचमसए पढमे उद्देसे' जिस प्रकार इसी जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति के पंचमशतक में प्रथम उद्देशक में कहा गया है उसी प्रकार से सूर्य के उदय अस्त के सम्बन्ध में यहां पर भी जानना चाहिये पंचमशतक के प्रथम उद्देशक का प्रकरण "जाव वस्थि उपपिणो अवट्ठिएणं तत्थ काले पण ते " समणाउसो" इस सूत्र तक का यहां ग्रहण करना चाहिये जिज्ञासुओं के निमित्त हम वहां का वह प्रकरण दसजोयण' भुम गति अथवा अधोगति उहेवामां भावी छे. मेथी में या प्रभा માને છે કે સૂર્ય પશ્ચિમસમુદ્રમાં પ્રવિષ્ટ થઈને પાતાલ માર્ગમાં થઈ ને પુનઃ પૂર્વસમુદ્રમાં ઉદય પામે છે.' તે આ સૈદ્ધાન્તિક કયનથી તેમનુ આ જાતનું કથન નિરસ્ત यह लय है, या प्रश्न उत्तर सूरे आ अतिदेश भुम वडे मध्ये हे- 'जहा पंचम स पढमे उद्देसे' ? प्रमाणे या दीप प्रज्ञसिना पंथम शताना प्रथम उद्देश मां કહેવામાં આવેલુ છે, તે પ્રમાણે જ સૂર્યના ઉદય-અસ્તના સંબંધમાં અહીં પણ જાણવું कोहये. पंथम शतम्ना प्रथम उद्देशउनु प्र४२ 'जाव णेवत्थि उत्साप्पणी अवट्ठिएणं જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006356
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages567
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size35 MB
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