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________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू० १० इन्द्रच्यवनानन्तरीयव्यवस्थानिरूपणम् १४५ तेन प्रथमपक्तिस्थित चन्द्रसूर्यमण्डलानामेतावान् तापक्षेत्रस्यायामो विस्तारश्च भवति, एकस्मात् सूर्यादपरः सूर्यो लक्षयोजनस्या तिकमे भवति तेन लक्षयोजनप्रमाणउक्त इति । _ 'सयसाहस्सियाहि' शतसाहसिकाभिः-लक्षप्रमाणाभिः 'वे उच्चियाहि वैकुर्विवाभि:वैक्रियलब्ध्या संपादिताभिः परिसाहिं' पर्षद्भिः 'महयाहयण जाव भुंजमाणा' महता. हत नृत्यगगीतवादिवतन्त्रीतलतालत्रुटितधनभृदङ्गपटुप्रवादितरवेण दिच्यान् भोगभोगान् भुञ्जानाः ते चन्द्रादयः 'मुहलेस्सा' सुखलेश्याः अत्र मुखलेश्येति विशेषणं चन्द्रस्यैव योग्यत्वात् तेन नातिशीततेजसो मनुष्यलोकइव शीतकालादौ, एकान्ततः शीतरश्मयो नेत्यर्थः मन्दलेश्याः, एतच्चविशेषणं सूर्य प्रति, तेन नात्युष्णतेजसो मनुष्यलोकइव निदाघसमये । एतके बाद प्रथम चन्द्र सूर्य पङ्क्ति है इसके बाद एक योजन आगे जाने पर दूसरी चन्द्र सूर्य पंक्ति है इस कारण प्रथम पंक्ति में रहे हुए चन्द्र सूर्य मंडलों का इतना तापक्षेत्र का आयाम और विष्कम्भ होता है एक सूर्य से दूसरा सूर्य एक योजन के अतिक्रम करने पर आता है इस कारण एक लाख योजन का तापक्षेत्र का विष्कम्भ कहा गया है ___ ये चन्द्रादिक एक लाख की संख्यावाले तथा विकुर्वित अनेक प्रकार के रूपों को धारण करने वाले ऐसे आभियोगिक कर्मकारी देवसमूहों के द्वारा बडे जोर जोर से ताडित किये गये नाटय गीत एवं वादित्र वादन कार्य में-त्रिविध सङ्गीत के समय में-तंत्री तल ताल, टित, धन,मृदंग इन सब बाजों की ध्वनि पूर्वक दिव्य भोगों को भोगते हैं। ये चन्द्रादिक सुखलेश्यावाले होते है यहां 'सुखलेश्या' यह विशेषण योग्य होने से चन्द्र के ही लागू होता है इससे मनुष्यलोक की तरह ये शीतकाल आदि में आति शीत तेज वाले नहीं होते हैं अर्थात् एकान्त से शीतरश्मि वाले नहीं होते हैं। 'मंदलेश्या,' यह विशेषण પછી બીજી ચન્દ્ર સૂર્ય પંક્તિ છે. આ કારણથી પ્રથમ પંક્તિમાં રહેનારા ચન્દ્ર-સૂર્યમંડળને આટલા તાપક્ષેત્રને આયામ અને વિશ્કેલ હોય છે. એક સૂર્યથી બીજે સુર્ય એક એજનને અતિક્રમ કરવાથી આવે છે. આ કારણથી એક લાખ રોજન તપક્ષેત્રને વિધ્વંભ કહેવામાં આવેલ છે. એકલાખ જેટલી સંખ્યાવાળા એ ચન્દ્રાદિક તેમજ વિકર્વિત અનેક પ્રકારના રૂપને ધારણ કરનાર એવા આભિગિક કર્મકારી દેવ સમૂહો વડે ખૂબજ જોર-શોરથી તાડિત કરવામાં આવેલા નાટ્ય, ગીત તેમજ વાવિવાદન કાર્યમાં વિવિધ સંગીતના સમયમાં તંત્રી, તલ, તાલ, ત્રુટિત, ઘન, મૃદંગ એ બધા વાઘોની દવનિપૂર્વક દિવ્ય ભેગોને ભેગવે છે. मे यन्द्र सुमदेश्यावहाय छे. मी 'सुखलेश्य' मा विशेष योग्य वा महस ચન્દ્રોને જ એ લાગૂ પડે છે, એથી મનુષ્યલકની જેમ એઓ શીતકાય આદિમાં અતિશીત rin होता नथी अर्थात् मेsitथी शीतश्भिवाय हातानथी. 'मंदलेश्य' 20 विशेषा। ज०१९ જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006356
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages567
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size35 MB
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