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________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ११ अभिषेकनिगमनपूर्वकमाशीर्वादः ७३१ वासइ' शुश्रूषमाणो यावत्पर्युपास्ते सोऽच्युतेन्द्रः, अत्र यावत् पदात् 'नसंसमाणे तिविहाए पज्जुवासणाए' नमस्यन् त्रिविधया पर्युपासनयेति अथावशिष्टानामिन्द्राणां वक्तव्यं लाघवादाह ‘एवं जहा' इत्यादि ‘एवं जहा अच्चुयस्स तहा जाव ईसाणस्य भाणियब्वं' एवम् उक्तविधिना यथाऽच्युतेन्द्रस्याभिषेककृत्यं तथा यावत् ईशानेन्द्रस्यापि. अभिषेककृत्यं भणितव्यम् । ___अत्र यावत्पदात् प्राणतेन्द्र सनत्कुमादारभ्य ईषानेन्द्र पर्यन्तस्य ग्रहणम् शक्राभिषेकस्य सर्वत श्वरमत्वात् 'एवं भवणवइवाणमंतरजोइसिआ य सूरपजपसाणा सएणं परिवारेणं पत्ते पत्तेअं अभिसिंचई' एवम् उक्तप्रकारेण भवनपतिवानव्यन्तरज्योतिष्काश्चन्द्राश्च सूर्यपर्यवसानाः स्वकेन परिवारेण सह प्रत्येकमभिषिञ्चन्ति, अभिषेकं कुर्वन्ति, अथावशिष्टशकेन्द्रस्पद से नमसमाणे तिविहाए पज्जुवासणाए' इस पाठका ग्रहण हुआ है। यहां जितने ये विशेषण बालक अवस्थापन ऋषभकुमार में प्रदर्शित किये हैं वे भव्य पथको छोडकर “भाविनिभूतवतू' इस कथन के अनुसार यद्यपि उनमें आगे ऐसी अवस्था होनेवाली है वर्तमान में यह अवस्था नहीं हैं फिर भी उसकी अभिव्यक्ति हो चुकी है ऐसा मानकर उपचार-कर उनकी सार्थकता समझलेनी चाहिये अतः इस प्रकार के कथन में कोई विरोध नहीं है भावी पर्याय को भूत पर्याय मानकर लोकमें भी कथनव्यवहार देखा जाता है इस सूत्र में जो नमोऽस्तुपद दो बार प्रकट किया गया है वह पुनरुक्ति दोषावह नहीं हैं प्रत्युत लाधव प्रकर करता है क्योंकि हरि-इन्द्र ने यहां जितने विशेषण प्रयुक्त किये हैं उनकेसबके साथ इस पदका प्रयोग उसे करना इष्ट है, क्योंकि उसके हृदय में भक्ति का प्रवाह उमड रहा है सो ऐसा न करके जो दो वार ही नमोऽस्तु पदका प्रयोग उसने किया है वह लाघव के निमित सिद्ध हो जाता है यहां जो सात ५युपासना ४२१। यो. मी यावत् ५४थी 'नमंसमाणे तिविहाए पज्जुवासणाए' मा पा સંગૃહીત થયેલ છે. અહીં જેટલાં વિશેષણ બાલક અવસ્થાપને કષભકુમાર માટે પ્રદર્શિત ४२वामी मावा छे ते मय पहने या परीने . 'भाविनिभूतवत्' या ४थन मुश्मन કે આગળ તેઓશ્રી એવી અવસ્થા પ્રાપ્ત કરશે પણ વર્તમાનમાં આ અવસ્થા નથી છતાંએ, તેની અભિવ્યક્િત થઈ ચૂકી છે. એવું માનીને-ઉપચાર કરીને–એમની સાર્થકતા સમજી લેવી જોઈએ. એટલા માટે આ પ્રકારના કથનમાં કોઈ પણ જાતને વિરોધ નથી. ભાવી પર્યાયને ભૂત પર્યાય માનીને લેકમાં પણ કથન-વ્યવહાર જોવામાં આવે છે. આ સૂત્રમાં रे 'नमोऽस्तु' ५४ २. पा२ माथ्यु छ तथा पुनहित ५ ५। छ, माम भान નહિ, પરંતુ અહીં તે લાઘવ પ્રકટ કરે છે. કેમકે હરિ-ઇત્તે અહીં જેટલાં વિશેષણ પ્રયુક્ત કર્યા છે તે બધાની સાથે એ પદને પ્રવેગ ઈષ્ટ છે, કેમકે તેના હૃદયમાં ભકિત प्रवाह जी २यो छे. तो मान ने तेथे ये पा२ 'नमोऽस्तु' पहने। प्रयोग या છે તે લાઘવ નિમિત્તે જ કર્યો છે એવું સિદ્ધ થઈ જાય છે. અહીં જે સાત-આઠ ડગલા જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006355
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages806
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size51 MB
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