SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 731
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७१८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे घनघनायितानि त्रीण्यपि कुर्वन्ति 'अप्पेगइया उच्छोलंति' अप्येकका देवा उच्छोलन्ति अग्रतो मुखे चपेटां ददति 'अप्पेगइया पच्छोलंति' अप्येककाः पच्छोलन्ति पृष्टतो मुखे चपेटा ददति 'अप्पेगइया तिवई छिदंति' अप्येककाः त्रिपदि मल्लइव रङ्गभूमौ त्रिपदि कुर्वन्ति 'पायददरयं करेंति' पाद दर्दरकम् पादेन दई रकं भूम्यास्फोटनरूपं कुर्वन्ति 'भूमि चवेडे दलयंति' भूमिचपेटां ददति कराभ्यां भूमिमाध्वन्ति 'अप्पेगइया महया महया सद्देणं रावेति' अप्येकका देवाः महता महता शब्देन रावयन्ति शब्दं कुर्वन्ति ‘एवं संजोगा विभासिअव्वा' एवम्-उक्तप्रकारेण संयोगाअपि द्वित्रिमेलका अपि विभाषितव्याः भणितव्याः, अयमर्थः उच्छोलनादि द्विकमपि कुर्वन्ति, तथा केचित त्रिकं चतुष्कं पञ्चकं पट्कं च कुर्वन्ति संघटन करना अर्थात् चीत्कार करना शुरु किया 'अप्पेगइया देवा तिणि वि' कितनेक देवों ने एक ही साथ घोडों के जैसा हिनहिनाना, हाथी के जैसा चिंघाडना और रथों के जैसा परस्पर में टकराना यह तीनों कार्य किये 'अप्पे गइया उच्छोलन्ति' कितनेक देवों ने आगे से ही मुखके ऊपर थप्पड मारनी शुरु की 'अप्पेगइया पच्छोलंति' कितने देवों ने पीछे से मुख पर थप्पक मारनी शुरु की 'अप्पेगइया तिवई छिदंति' कितनेक देवों ने रङ्गभूमि में मल्लकी तरह पैंतरा भरना प्रारम्भ किया 'पाददद्दरयं करेंति' कितनेक देवों ने पैर पटय पटक कर भूमिको ताडित किया 'भूमिचवेडे दलयंति' कितनेक देवों ने पृथिवी पर हाथों को पटका 'अप्पेगइया महया सद्देणं रावेंति' कितनेक देवों ने बडे जोर जोर से शब्द किया 'एवं संजोगा विभासिअव्वा' इसी प्रकार से संयोग भीद्वित्रि पदों की मेलक भी कह लेना चाहिये अर्थात् कितनेक देवों ने उच्छोल. नादि द्विक भी किये कितनेक देवों ने उच्छोलनादि त्रिक चतुष्क एवं कितनेक देवों ने उच्छोलनादि पंचकषट्क भी किये 'अप्पेगइया हक्कारंति वुक्कारंति ५२२५२भा सीन यु. मेटो चीसो ५वानी ॥२मात 3री. 'अप्पेगइया देवा तिण्णि વિ’ કેટલાક દેવોએ એકી સાથે જોડાઓની જેમ હણહણાટ કરવું, હાથીઓની જેમ ચીસે पावी भने २थानी म ५२२५२ मा संघटित यु मात्रणे यो ४ा. 'अप्पेगइया उच्छोलन्ति' । वामे भाजयी ४ पोताना भु५ ७५२ ५५७ भा२पानी रुपात ४३N. 'अप्पेगइया पच्छोलन्ति' ४४ हेवाये ५७थी भुम ७५२ ५५५ भा२पानी शरुआत 3री 'अप्पेगइया तिवई छिदंति' ८८ हेवा समिमा भवानी रे पैतभरवानी शमात ४१. 'पाददहरयं करें ति' ३४५४४ हेवामा ५२-५७-५७२ भूभिने त ४३. भूमिचवेडे दलयंति' मा हेवा पृथिवी ५२ या ५७।३या. 'अप्पेगइया महया सद्देणं रोवंति' ३८ हेवाये मई २-२थी मा०४ या ‘एवं संजोगा विभासि अवा' ॥ प्रभाये । सय ५६-विवि पानी में विशेष ४ी से नये. थेट કે કેટલાક દેવોએ ઉચ્છલનાદિ ક્રિકે પણ કર્યા કેટલાક દેએ ઉચ્છલનાદિ ત્રિક, ચતુષ્ક જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006355
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages806
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size51 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy