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________________ प्रकाशिका टीका-पश्चमवक्षस्कारः सू. ४ इन्द्रकृत्यावसरनिरूपणम् ६१७ रत्नैश्च मण्डिते शोभिते एवंभूते पादुके पादत्राणे अवमुञ्चति त्यजति भक्तयतिशयात् पादुके निःसारयतीतिभावः 'ओमुत्ता' अवमुच्य परित्यज्य 'एगसाडियं उत्तरासंगं करेइ' एकशाटिकम् उत्तरासङ्गं करोति मुखे बध्नातीत्यर्थः 'करिता' कृत्वा 'अंजलिमुउलियग्गहत्थे ' अञ्जलिमुकुलिताग्रहस्तः अञ्जलिना मुकुलितौ कुड्मलाकारीकृतौ संकोचितौ अग्रहस्तौ हस्ताग्रभागौ येन स तथाभूतः 'तित्थयराभितुहे' तिर्थकराभिमुखः 'सत्तट्ठपयाई अणुगच्छइ' सप्ता पदानि सप्त वा अष्टौ वा पदानि अनुगच्छति, यत्र तीर्थंकरस्तस्यां दिशि यातीत्यर्थः 'अणुगच्छित्ता' अनुगत्य 'वामं जाणुं अंचेई' वामं जानूम् आकुंचयति' ऊर्ध्वं करोति स शक्रः 'अंचेत्ता' आकुच्य ऊर्ध्वं कृत्वा 'दाहिणं जाणुं धरणितलंसि णिहदु' दक्षिणं जानुं धारणितले निहत्य निवेश्य 'तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणियलंसि निवेसेइ' त्रिःकृत्वः त्रि. वारं मूर्धानं धरणितले निवेशयति स्थापयति 'निवेसित्ता' निवेश्य स्थापयित्वा 'ईसिं पच्चुणमइ' ईषत् प्रत्युन्नमति 'ईसि पच्चुण्णमित्ता' ईषत् प्रत्युन्नमय्य 'कडगतुडियर्थ मियलुआओ खडाऊं को उसने पैरों में से उतारदिया (ओमुइत्ता एगसाडिअं उत्तरासंग करे इ) उन्हें उतार कर फिर उसने अस्यूत शाटक को दुपट्टे का उत्तरासंग कियाअर्थात् दुपट्टे को अपने मुख पर बांधा (करिता अंजलिमउलियग्गृहत्थे तित्थ राभिमु सत्तट्ठपयाई अणुगच्छइ) बांधकर फिर उसने अपने दोनों हाथों को जोडकर - अर्थात् हथेलियों को जोड़कर उनकी अंजुलि बनाई और वह जिस दिशा में तीर्थकर प्रभु थे उनकी ओर सात आठ डग आगे गया (अणुगच्छित्ता वामं जाणं अंचेइ, अंचेत्ता दाहिणं जाणं धरणीतलंसि निहटु तिक्खुत्तो मुद्धाण धरणियसि निवेसेइ) आगे जाकर उसने बायें घुटने को ऊपर उठाया और उठाकर दाहिने घुटने को जमीन पर जमाया जमा कर फिर उसने तीन बार अपने मस्तक को जमीन पर झुकाया (णिवेसित्ता ईसिंपच्चुण्णमई) और स्वयं भी थोडा सा नीचे झुका ( इंसिं पच्चण्नमित्ता कडगतुडिय थभियाओ भुयाओ पावडीयोने तेथे पोताना पशोभांथी उतारी नामी (ओमुइत्ता एगसाडिअं उतरा संगं करेइ' पावडीयोने उतारीने पछी तेथे अस्यूत शाटन हुपट्टानो उत्तरासंग य मेटले उ-हुपट्टाने पोताना शुभ उपर माध्ये 'करिता अंजलिम उलियग्गहत्थे तित्थयराभिमु सत्तपयाइं अणुगच्छइ' गांधीने पछी तेथे पोताना मन्ने हाथोने लेडीने भेटले કે બન્ને હાથેાની હથેલીઓને જોડીને તેમની અ ંજલિ મનાવી. પછી તે જે દિશામાં तीर्थ ५२ प्रभु हृता, ते तर सात- आई पणता भाग गया. 'अणुगच्छित्ता वामं जाणं अंचे, अंचेत्ता दाहिणं जाणु धरणीतलंसि निहटु तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणियलंसि निवेसेइ' આગળ જઈને તેણે પેાતાના વામ ઘૂંટણને ઉપર ઉઠાબ્યા અને ઉઠાવીને જમણા ઘૂંટણને ભૂમિ ઉપર જમાન્યા. જમાવીને પછી તેણે ત્રણ વાર પેાતાના મસ્તને જમીન તરફ नभित . 'णिवेसित्ता ईसि पच्चुण्णमइ' भने पोते पशु थोडोनिभित थयो. 'इंसी ज ७८ જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006355
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages806
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size51 MB
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