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________________ ४९२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे सिंहासनप्रयोजनम् अथ द्वितीयसिंहासनप्रयोजनमाह-'तत्थ णं जे से उत्तरिल्ले' इत्यादितत्र-तयोरासनयो मव्ये खलु यत् तदिति प्राग्वत्, औत्तराहम्-उत्तरभागवर्ति 'सीहासणे' सिंहासनं 'तत्थ' तत्र-तस्मिन् सिंहासने 'ण' खलु, 'बहू हिं' बहुभिः 'भवण जाव' भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकैर्देवैर्देवीभिश्च 'वप्पाइया' वप्रादिजाः उत्तरभागवर्तिवप्रादिविजयाष्टकोत्पन्नाः 'तित्थयरा' तीर्थकराः-जिनाः 'अहिसिच्चंति' अभिषिच्यन्ते, अथ चतुर्थी रक्तकम्बलशिलामियां शिलां वर्णयितुमुपकमते-'कहि णं भंते ! पंडगवणे रक्तकंबलसिला' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम्, उत्तरसूत्रं पाण्डुकम्बलशिलासूत्रमनुसृत्य व्याख्येयं नवरम् 'सव्वतवणिज्जमई' गये हैं और जिसके प्रत्येक भागमें एक एक जिनेन्द्र की एक साथ उत्पत्ति होती है उसके दक्षिण भाग गत आठ पक्ष्मादि विजय है उत्तर भाग गत आठ वमादि विजय हैं इनमें दक्षिण भाग गत आठ पक्ष्मादि विजयों में उत्पन्न हुए तीर्थकर का जन्माभिषेक तो दक्षिणदिगू भागवती सिंहासन पर होता है और 'तत्थ णं जे से उत्तरिल्ले सीहासणे तत्थ गं बहूहिं भवण जाव वप्पाइआ तित्थयरा अहि सिच्चंति' जो उत्तर दिग्वर्ती सिंहासन है उस पर ८ वादि विजयगत तीर्थकर का जन्माभिषेक होता है यह जन्माभिषेक भवनपति आदि चतुर्विध निकाय के देव और देवियों द्वारा किया जाता है। 'कहिणं भंते ! पंडकवणे रत्तकंबल सिला णामं सिला पण्णत्ता' हे भदन्त ! पंडकवन में रक्त कंबल शिला नामकी शिला कहां पर कही गई है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! मंदरचलियाए उत्तरेणं पंडगवणउत्तरचरिमंते एत्थ णं पंडगवणे रत्तकंबलसिला नामं सिला पण्णत्ता' हे गौतम ! मन्दर चूलिका की उत्तरदिशा में तथा पंडकवन की उत्तर सीमा के अन्त में पंडकवन में रक्तकम्बलशिला नामकी शिला कही गई है દક્ષિણ અને ઉત્તર ભાગ રૂ૫ બે ભાગો થઈ ગયા છે અને જેના દરેક ભાગમાં એક-એક જિનેન્દ્રની એકી સાથે ઉત્પત્તિ થાય છે. તેના દક્ષિણ ભાગમાં આઠ પમાદિ વિજયે આવેલા છે. ઉત્તર ભાગનાં આઠ વપ્રાદિ વિજયે આવેલા છે. એમાં દક્ષિણ ભાગ ગત આઠ ૫હમાદિ વિજેમાં ઉત્પન્ન થયેલા તીર્થ કરને જન્માભિષેક તે દક્ષિણ દિમ્ભાગવત સિંહાસન ઉપર हेय छे. भने 'तत्थ जे जे से उत्तरिले सीहासणे तत्थ णं बहूहिं भवण जाव वप्पाइआ तित्थयरा अहिसिच्चंति' २ उत्तर ती सिंहासन छ तेनी ५२ ॥ 4 विoय ગત તીર્થકરને જન્માભિષેક હોય છે. એ જન્માભિષેક ભવનપતિ વગેરે ચતુર્વિધ નિકાयना है मन वाम 43 ४२वामां आवे छे. 'कहिणं भंते ! पंडगवणे रत्तकंबलसिला णामं सिला पण्णत्ता' हे महत! ५४पनमा २५त ४ शिखा नामे शिक्षा या २५णे सावली छ १ मेना पाममा प्रभु ४३ -'गोयमा ! मंदरचूलियाए उत्तरेणं पंडगवणउत्तरचरिमंते एत्य णं पंडगवणे रतकंबलसिला णामं सिला पण्णता' हे गौतम! म४२ यूलिनी ઉત્તર દિશામાં તેમજ પંડક વનની ઉત્તર સીમાના અંતમાં પંડકવનમાં રફત કંબલ શિલા જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્રા
SR No.006355
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages806
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size51 MB
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