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________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २९ द्वितीयविदेहविभागनिरूपणम् ३८३ 'किण्हे' इत्यादि-कृष्णं कृष्णवर्णम् मध्यमावस्थायां कृष्णवर्णपत्रसम्पन्नवादनमपि कृष्णवर्णम् न चोपचारमात्रेण कृष्णमिति व्यपदिश्यते किन्तु कृष्णतया प्रतिमासनात् तथाऽऽह 'किण्हो भासे' कृष्णावभासम् यावति वनभागे कृष्णदलानि सन्ति तावति तद्भागे तद्वनमतीव कृष्णवर्णमवभासमानम् अतः परं नीलं नीलावभासमित्यादि सङ्ग्रहीतुमाह-'जाव' अत्र यावत्पदेन सङ्ग्राहयपदानां सङ्ग्रहोऽर्थश्च पञ्चमसूत्रटीकातो बोध्यः 'महया गंधद्धाणि' महागन्धघ्राणि 'मुअंते' मुश्चन्तः इत्यारभ्य 'जाव आसयंति' यावदासते 'आसते' इति पर्यन्तानां पदानां सङ्ग्रहोऽत्र बोध्याः स च सार्थः पश्चमषष्ठसूत्राभ्यां बोध्यः। तथा तत् 'उभो पासि उभयोः द्वयोः पार्श्वयोः भागयोः 'दोहि' द्वाभ्यां 'पउमवरवेइयाहिं' पद्मवरवेदिकाभ्याम् इत्युपलक्षणं तेन द्वाभ्यां वनषण्डाभ्यां च सम्परिक्षिप्तम् इत्येतत्पदद्वयस्य सङ्ग्रहो बोध्यः, तयोः 'वण्णओ' वर्णकः-वर्णनपरपदसमूहोऽत्र बोध्यः स च प्राग्वत् चतुर्थपञ्चमसूत्राभ्यां बोध्यः । ___ अथ द्वितीये महाविदेहविभागे वत्सादिविजय-तत्प्रमाणसुसीमादि-राजधानी त्रिकूटादि वक्षस्कारपर्वतः तप्तजलादि नदी व्यवस्थामाह-'कहि णं भंते !' इत्यादि-प्रश्नसूत्रं स्पष्टम्, वर्ण वाले पत्रों से युक्त होने के कारण कृष्ण है, और इसी कारण यह कृष्ण रूप से प्रतिभासित होता है क्वचित् २ यह वन नील पत्रों से युक्त होने ने कारण नीला है और इसी से यह नीला प्रतीत होता है इत्यादि रूप से इस वन का वर्णन पंचम सूत्र की टीका के अनुसार कर लेना चाहिये यहाँ आगत यावत्पद से यही बात प्रकट की गई है 'महया गंधद्धाणि भयंते" से लेकर "जाव आसयंति" यहाँ तक के पदों का संग्रह पंचम और छठे सूत्र के कथनानुसार यहां पर कर लेना चाहिये यह वन (उभो पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहिं दोहिं वणसंडेहिं संपरिक्खित्ते) दोनों ओर दो पद्मवरवेदिकाओं से एवं दो बनपंडों से घिरा हुआ है इन दोनों का पद्मवरवेदिका और वनषंड का-वर्णनकरने वाले पदसमूह समग्र प्रकार से यहां चतुर्थ पंचम सूत्र से समझ लेना चाहिये (कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे बासे वच्छे णामं विजए पण्णत्ते) भदन्त ! जंबूद्वीप કૃષ્ણ છે. અને એથી જ આ કૃષ્ણ રૂપમાં પ્રતિભાયિત થાય છે. ફવચિત-કવચિત આ વન નીલપત્રથી યુક્ત હોવા બદલ નીલું છે અને એથી જ આ નવું પ્રતીત થાય છે. ઈત્યાદિ રૂપમાં આ વનનું વર્ણન પંચમ સૂત્રની ટીકા મુજબ સમજી લેવું જોઈએ. म. मावा यावतू ५४थी मे बात ४८ ४२वामा पानी छे 'महया गंधद्धाणिं मुयंते' मही थी भोजन 'जाव आसयंति' २मडी सुपीना पहनु ह ५ यम भने १० सूचना ४- भुम मही ४श से नये. मापन 'उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहिं दोहिं वणसंडेहि संपरिक्खित्ते' सन्न त२५ २ ५१२वामाथी तमगा में नम थी मावृत छ પાવર વેદિક અને વનખંડ વિષેનું વર્ણન ચતુર્થ અને પંચમ સૂત્રમાં કરવામાં આવેલું छ. जासुमोमांथी adept यत्न ४२. 'कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीबे महाविदेहे वासे वच्छे જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006355
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages806
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size51 MB
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