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________________ ३७२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे मुखवनव्यावृत्त्यर्थम्, अथानन्तरोक्तं शीतामुखवनमुत्थिताकाक्षं लक्षयन्नाह-'कहि णं भंते ! उत्तरिल्ले सीयामुखवणे' इत्यादि-क्व खलु 'भंते !" भदन्त ! 'महाविदेहे वासे' महाविदेहे वर्षे 'सीयाए' शीतायाः 'महाणईए' महानद्या: 'उत्तरिल्ले' औत्तराहम्-उत्तरदिग्वति 'सीयामुहवणं' शीतामुखवनं शीतायाः-एतन्नाम्न्या महानद्याः मुखवनं मुखे समुद्रप्रवेशे वनं शीतामुखवनं 'णाम' नाम 'वणे' वनं 'पण्णत्ते ?' प्रज्ञप्तम् ? तत्र शीतामुखवने औत्तराहखविशेषणो. पादानेन दाहिणात्यस्य तस्य व्यावृत्तिः, तथा मुखवने शीता सम्बन्धित्वोपादानाच्शीतोवई णामं चक्कवष्टिविजए पण्णत्ते) हे भदन्त ! महाविदेह क्षेत्र में पुष्कलावती नामका चक्रवर्ती विजय कहां पर कहा गया है ? (गोयमा ! णीलवंतस्स दक्खिणेणं सीयाए उत्तरेणं उत्तरिल्लस्स सीयामुहवणस्स पच्चत्थिमेणं एगसेलस्स वक्खारपव्वयस्स पुरस्थिमेणं एस्थणं महाविदेहे वासे पुक्खलावई णामं विजए पण्णत्ते) हे गौतम ! नीलवंत पर्वत की दक्षिण दिशा में, सीता नदी की उत्तर दिशा में, उत्तर दिग्वर्ती सीतामुख नदी की पश्चिम दिशा में, एकौल नामक वक्षस्कार पर्वत की पूर्व दिशा में महाविदेह क्षेत्र के भीतर पुष्कलावती नामका विजय कहा गया है (उत्तरदाहिणायए, एवं जहा कच्छविजयस्त जाव पुक्खलावई य इत्थ देवे परिवसह, एए टेणं) यह उत्तर से दक्षिण तक आयत-दीर्घ है एवं पूर्व से पश्चिम तक विस्तृत है। इस तरह से जैसा कथन कच्छ विजय के प्रकरण में कहा गया है वैसा ही कथन यहां पर कर लेना चाहिये यावत् पुष्कलावती नामकी देवी यहां पर रहती है-इस कारण हे गौतम ! मैने इसका नाम पुष्कलावती विजय ऐसा कहा है (कहिणं भंते ! महाविदेहे वासे सीयाए महा. णईए उत्तरिल्ले सीयामुहवणे णामं वणे पण्णत्ते) हे भदन्त ! महाविदेह क्षेत्र में सीता महानदी की उत्तर दिशा में रहा हुवा सीता मुख वन कहां पर कहा या स्थणे मावेश छ १ अन! Rai प्रभु डे छ-'गोयमा ! णीलवंतस्स दक्खि. णेणं सीयाए उत्तरेणं उत्तरिल्लस्स सीयामुहवणस्स पच्चत्थिमेणं एगसेलस्स वक्खारपव्ययस्स पुरथिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे पुक्खलावई णामं विजए पण्णत्ते' हे गौतम , नासपन्त પર્વતની દક્ષિણ દિશામાં, સીતા નદીની ઉત્તર દિશામાં ઉત્તર દિગ્વતી સીતા મુખ વનની પશ્ચિમ દિશામાં એકરશૈલ નામક વક્ષસ્કાર પર્વતની પૂર્વ દિશામાં મહાવિદેહ ક્ષેત્રની म२ Y०४ावती नाम वि०४५ सास छे. 'उत्तरदाहिणायए एवं जहा कच्छविजयस्स जाव पुक्खलावई य इत्थ देवे परिवसइ एएणटेणं' से उत्तरथी दक्षिण सुधी आयत-द्वीध છે તેમજ પૂર્વથી પશ્ચિમ સુધી વિસ્તૃત છે. આ પ્રમાણે જેવું કથન કચ્છ વિજયના પ્રકરણમાં કહેવામાં આવેલું છે. તેવું જ કથન અહીં પણ સમજી લેવું જોઈએ. યાવત્ પુષ્કલાવતી નામક દેવી અહીં રહે છે–એથી હે ગૌતમ ! મેં એનું નામ પુષ્કલાવતી વિજય मे २०यु छ, 'कहिणं भंते महाविदेहे वासे सीआए महाणईए उत्तरिल्ले सीयामुहवणे જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006355
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages806
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size51 MB
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