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________________ ३३२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे पुनः सम्पूरिता भवन्ति 'अहे' अधःअधोमागे 'तिमिसगुहाए' तिमिस्रगुहायाः 'वेयद्धपव्वयं' वैताढयपर्वतं 'दालयित्ता' दारयित्वा 'दाहिणकच्छ विजयं दक्षिणकच्छविजयम् 'एज्जेमाणी २' इर्यती २ पुनः पुनः, गच्छन्ती चोदसहि' चतुर्दशभिः 'सलिलासहस्सेहि' सलिलासहस्त्रैः 'समग्गा' समग्रा-सम्पूर्णा 'दाहिणेणं' दक्षिणेन- दक्षिणदिशि 'सोय' सीता 'महाणई' महानदी 'समप्पेई' समाप्नोति सम्-सम्यक्तया आप्नोति गच्छति प्रविशतीतिभावः, 'सिंधुमहाणई' सिन्धुमहानदी 'पवहे' प्रवहे-समुद्रप्रवेशे 'य' च पुनः 'मूले' मूले निर्गमस्थाने 'य' च 'भरहसिंधुसरिसा' भरतसिन्धुसदृशी भरतवर्षति सिन्धुमहानदीवत् 'पमाणेणं' प्रमाणेन आयामविष्कम्भादिमानेन इत्यारभ्य 'जाव दोहिं वणसंडे हिं संपरिक्खित्ता' यावद् द्वाभ्यां वनषण्डाभ्यां सम्परिक्षिप्ता परिवेष्टिता इति पर्यन्तं वर्णनं बोध्यम् । एतत्सर्वं भरतवर्षवर्ति सिन्धुभहानदी प्रकरणतो ग्राह्यम् । अधोत्तरार्द्धकच्छान्तर्वति ऋषभकूट पर्वतं वर्णयितुमाह-'कहि णं भंते !' क्व खलु माणी२' बार बार पूरित होती हुई 'अहो' अधो भागमें 'तिमिसगुहाए' तमिस्रा गुहामें 'वेयद्धपव्वयं' वैताढयपर्वत को 'दालयित्ता' पार कर के 'दाहिणकच्छविजयं दक्षिणदिशा के कच्छविजय को 'एजमाणी२' बार बार स्पर्शती हुई 'चोदसहि' चतुर्दश चौदह 'सलिलासहस्सेहिं' १४ हजार नदीयों से 'समग्गा' सम्पूर्ण होती हुई 'दाहिणेणं' दक्षिण दिशामें 'सीयं 'महागई' सीता महानदो को 'समप्पेई प्राप्त करती है अर्थात् सीता महा नदी में मिलती है । 'सिंधुमहाणई' सिंधु महा नदी 'पवहेय' समुद्रप्रवेश में और 'मूले' मूलमें अर्थात् उद्गमस्थान में 'य' और 'भरह सिंधुसरिसा' भरतवर्षगत सिंधु महानदी के जैसी 'पमाणेणं' आयामविष्कभादि प्रमाण से यहां से आरम्भ कर 'जाव दोहिं वणसंडेहिं संपरिक्खित्ता' यावत दो वनषण्डों से वेष्टित होती हई इस कथन पर्यन्त का सम्पूर्ण वर्णन समझलेवें। यह सब वर्णन भरतवर्ष में रही सिंधुमहा नदी के वर्णनावसर से समझलेवें। थी 'अहे' मधी लामा 'तिमिसगुहाए' विभिखडामा 'वेयद्धपव्वयं' वैतादय पतन 'दालयित्ता' ५।२ ४ीने 'दाहिणकच्छविजयं' क्षण शिना ४२७ (वन्यने 'एज्जमाणी२' २५शती २५ ती 'चोदसहिं' यौह 'सलिलासहस्सेहिं' २ नदीयोथी 'समग्गा माती सती 'दाहिणेणं' क्षए शिम 'सीयं महाणइं' सी महानहीने 'समप्पेइ' प्रात 3रे छ. अर्थात् सीता महानहीन भणे छ. सिंधु महाणई' सिधुमहानही 'पवहेय' समुद्र प्रवे. शमा भने 'मूले' भूम मेट .पत्ति स्थानमा 'य' भने 'भरहसिंधु सरिसा' मरत १५ भां आपस सिधु महानहीन पी 'पमाणेणं' मायाम विमा प्रभारथी मही थी भार मान 'जाव दोहि वणसंडेहि संपरिविखत्ता' यावत् मे पनष थी वी ती मायन પર્યન્તનું પુરેપુરું વર્ણન સમજી લેવું. આ બધું વર્ણન ભરતવર્ષમાં આવેલ સિંધુમહા નદીના વર્ણન પ્રસંગથી સમજી લેવું. જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006355
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages806
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size51 MB
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