SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 316
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २५ हरिस्सहकूटनिरूपणम् एतच्छाया-'मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरेण तिर्यगसंख्येयान् द्वीपसमुद्रान् व्यतिव्रज्य' इति एतस्य व्याख्या स्पष्टा नवरम् व्यतिव्रज्य-अतिक्रम्य 'अण्णं मि' अन्यस्मिन् 'जंबुद्दीवे' जम्बूद्वीपे 'दीवे' द्वीपे 'उत्तरेणं' उत्तरेण-उत्तरस्यां दिशि 'बारस' द्वादश 'जोयणसहस्साई' योजनसहस्राणि द्वादशसहस्रयोजनानीति मुकुलितार्थः, 'ओगाहित्ता' अवगाह्य-प्रविश्य 'एत्थ' अत्र-अत्रान्तरे 'णं' खलु 'हरिस्सहस्स' हरिस्सहस्य-एत्तन्नामकस्य 'देवस्स' देवस्य-हरिस्सहकूटाधिपस्य 'हरिस्सहा' हरिस्सहा ‘णाम' नाम 'रायहाणी' राजधानी 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता, तस्या मानमाह-'चउरासीइ चतुराशीति 'जोयणसहस्साइ' योजनसहस्राणि 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेण-दैर्घ्य विस्ताराभ्याम् 'बे' द्वे 'जोयणसयसहस्साई' योजनशतसहस्रयोजनलक्षे 'पण्णट्टि' पञ्चषष्टि 'च' च 'सहस्साई' सहस्राणि-योजनसहस्राणि 'छच्च' षट च 'छत्तीसे' पत्रिंशानि-पत्रिंशदधिकानि 'जोयणसए' योजनशतानि 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण-परिधिना प्रज्ञप्तेति पूर्वेण सम्बन्धः, 'सेसं' शेषम-अवशिष्टम् उच्चखोद्वेधादिकम् 'जहा' यथा-येन प्रकारेण 'चमरचंचाए' चमरचश्चायाः-'रायहाणीए' राजधान्याः चमरेन्द्रतिरछे असंख्यात द्वीप समुद्रों को उल्लंघन करके 'अण्णंमि' दूसरे जंबुद्दीवे' जंबु द्वीप नाम के 'दीवे' द्वीप में 'उत्तरेणं' उत्तर दिशा में 'बारस जोयणसहस्साई' बारह हजार योजन 'ओगाहित्ता' प्रवेश करके 'एत्थ' यहां पर 'ण' निश्चय से 'हरिस्सहस्स देवस्स हरिस्सह नाम के देवका 'हरिस्सहा णामं रायहाणी पण्णत्ता' हरिस्सहा नामकी राजधानी कही है। अब इसका प्रमाण कहते हैं-'चउरासीइं जोयणसहस्साई' चोरासी हजार योजन 'आयाम विक्खंभेणं' उसकी लंबाई चोडाई कही है। 'बे जोयणसयसहस्साई' दो लाख योजन पण्णर्डिं च सहस्साई' पैंसठ हजार 'छच्च छत्तीसे' छत्तीस अधिक 'जोयणसए' छसो योजन परिक्खेवेणं' ईसका परिक्षेप कहा है। 'सेस' बाकिका समग्र कथन अर्थात् उच्चत्व उद्वेधादिक 'जहा' जैसा 'चमरचंचाए' चमस्स उत्तरेणं तिरियमसंखेज्जाई दीवसमुद्दाई वीईवइत्ता' २॥ ५४ अ याय छे. म-४२ पतनी उत्तर दिशामा तिमिस ज्यात दी५ समुद्रीन मेणार 'अण्णमि' मी 'जंबूहोवे' दी५ नामना 'दीवे' द्वीपमा उत्तरेण' उत्तर दिशामा 'बारस जोयणमहस्साई' मा२ १२ यान 'ओगाहित्तो' प्रवेश परीने 'एत्थ' महीयां 'ण' निश्चयथा 'हरिस्सहस्स देवस्स' इरिस नामानावनी 'हरिस्सहा णामं रायहाणी पण्णत्ता' ३२२सह नामनी २४धानी ४१ छ. ३ तेनु प्रभार मतावा भाव छ.-'चउरासीई जोयणसरस्साई' यार्याशी हर योन 'आयामविक्ख भण' तेनी मा पा डेसी छे. 'वे जोयणसयसहस्साई' Gav योन 'पण्णद्रिं च सहस्साइ' पांस M२ 'छच्च छत्तीसे' छत्रीस पधारे 'जोयण सए' सो यो- 'परिक्खेवेण' तेना परिक्ष५ हे छ. 'सेस' माडीनुसमय ४थन मर्थात् उच्यत्व घl६ 'जहा' म 'चमरचंचाए' यभर या नाभनी 'रायहाणीए' राधानानु જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006355
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages806
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size51 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy