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________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू० २३ सुदर्शनाजम्बूवर्णनम् २६३ -स्कन्धबाहल्य द्वे योजने ऊर्ध्वमुच्चत्वेन - उच्छ्रयेण 'अद्धजोयणं बाहल्लेणं' अर्द्धयोजनं बाहल्येन - पिण्डेन प्रज्ञप्त इति सम्बन्धः, 'तीसे णं' तस्याः - पूर्वोक्तायाः मणिपीठिकायाः खल 'साला' शालाविडिमापरपर्याया दिक् प्रसृता शाखा 'छजोयणाई उद्धं उच्चतेणं' पड़ योजनानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, तथा 'बहुमज्झ देसभाए' बहुमध्यदेश भागे - अत्यन्त मध्यदेश भागे 'अट्ठ जोयणाई आयाम विक्रमेणं' अष्ट योजनानि आयाम-विष्कम्भेण दैर्ध्य - विस्ताराभ्याम्, जम्बू: प्रज्ञप्तेति बोध्यम्, तानि चास्याः स्कन्दोपरितनभागाच्चतसृष्वपि दिक्षु प्रत्येक मेकैका शाखा निर्गता, ताश्च शाखाः क्रोशोनानि चत्वारि योजनानि तेन पूर्वापरशाखा दैर्ध्य - स् सम्बन्ध्यर्द्धयोजन मेल ने नानन्तरोक्त संख्या पूर्तिर्जायते बहुमध्यदेशभागश्रात्र व्यावहारिको ग्राह्यः, वृक्षादीनां शाखोद्भवस्थाने मध्यदेशस्य लोकैर्व्यवह्रियमाणत्वात्, यथापुरुष कटिभागोमध्यदेशो व्यपदिश्यते, अन्यथा विडिमायाः द्वियोजनातिक्रमणे निश्चितस्य मध्यदेशभागस्य उर्दू उच्चतेणं' दो योजन के ऊंचाइ एवं 'अद्ध जोयणाई बाहल्लेणं' आधा योजन का मोटा कहा है 'तीसे णं साला' वह पूर्वोक्त मणिपीठिका की शाखाएं 'छ जोयणाई उद्धं उच्चतेणं' छ योजन की ऊंची 'अट्ठ जोयणाई आयामविवखंभेणं' आठ योजन की लंबाई चोडाइ वाली कही है । वे शाखा के 'बहुमज्झ देस भाए' ठीक मध्य भाग में 'अट्ठ जोयणाई आयामविक्संभेणं' आठ योजन पर्यन्त की लम्बी चोडी कही है । वे शाखाएं इसके स्कन्द के ऊपर के भाग से चारों दिशा में प्रत्येक दिशा में एक एक के क्रम से चार नीकलती है। वे शाखाएं एक कोस कम चार योजन की कही है । अतः पूर्व पश्चिम की शाखा की लंबाई-स्कन्धकी मोटाई सम्बन्धी आधा योजन मिलाने से पूर्व कथित संख्या की पूर्ति हो जाती है । बहुमध्य देश भाग यहां पर व्यावहारिक लेना चाहिए कारण की वृक्षादि की शाखा के उद्गमन स्थान को लोक में मध्य देश भाग से व्यवहार करते हैं । भेटखेी उभाधवराणी भने 'अद्धजोयणाई बाहल्लेणं' अर्धा योजन भेटलो लडो उद्यो छे. 'तीसेणं साला' ते पूर्व भगियो डिमनी शाणाओ 'छ जोयणाई उद्धं उच्चतेणं' ४ योजन भेटसी थी छे. 'अट्ठ जोयणाई आयामविक्संभेणं' आयोजन नेटसी संजा महोपाध मुहेस छे. थे शाखाओोना 'बहुमज्झदेसमाए' रोमर मध्यभागमा 'अटु जोयणाई आयामવિશ્વમેળ' આઠ યેાજન જેટલી તેની લંબાઇ અને પહેાળાઇ કહેલ છે. તે શાખાએ તેના સ્કઃ—થડના ઉપરના ભાગથી ચારે દિશાઓમાં દરેક દિશામાં એક એકના ક્રમથી ચાર નીકળે છે. તે શખાએ એક ગાઉ એછા એવા ચાર ચાજન જેટલી કહેલ છે. તેથી તેની પૂર્વ પશ્ચિમ દિશાની શાખાની લ"બાઇ–થડની જાડાઇમાં અર્ધી ચેાજન જેટલી વધારવાથી પૂ`કથિત સખ્યાની પૂતિ થઈ જાય છે. અહીંયાં મહુમધ્ય દેશભાગ વ્યવહારિક લેવા જોઇએ કારણ કે વૃક્ષાદિની શાખાઓના ઉગમનસ્થાનને મધ્યભાગ તરીકે વ્યવહાર કરે છે. જેમ પુરૂષના કમ્મર ભાગને મધ્યભાગ તરીકે કહે છે. આ રીતે ન કહે તે શાખાના બે 1 જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006355
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages806
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size51 MB
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