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________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २३ सुदर्शनाजम्बूवर्णनम् २६१ एकया पद्मवरवेदकिया एकेन च वनषण्डेन सर्वतः समन्तात्-सर्वदिग्विदिक्ष 'संपरिक्खिने' सम्परिक्षिप्तम् , 'दुहंपि' द्वयोरपि-पद्यवरवेदिका-वनपण्डयोरुभयोरपि 'वण्णो ' वर्णक:वर्णनपरपदसमूहः अत्र बोध्यः, स च पञ्चम-षष्ठ सूत्राभ्यां ज्ञेयः, तच्च जम्बूपीठं जघन्यतोऽपिचरमान्ते विक्रोश्युच्चकथं सुखारोहावरोहम् ? इत्याशङ्कयाह -'तस्सणं' इत्यादि'तस्स णं' तस्य-पूर्वोक्तस्य खलु 'जंबूपेढस्स चउद्दिसों' जम्बूपीठस्य चतुर्दिशि-चतुसषु दिक्षु-'एए चत्तारि' एतानि-इमानि चत्वारि 'तिसोवाणपडिरूवगा' त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि-सुन्दरत्रिसोपानानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि, तेषां 'वण्णओ' कर्णकोऽत्र बोध्यः, सच किम्पर्यन्तः इत्याह-'जाव तोरण ई' यावत् तोरणानि-तोरणवर्णनपर्यन्तः, त्रिसोपानप्रति. रूपकवर्णको द्वादशसूत्रतो राजप्रश्नीयस्य तोरणवर्णश्च त्रयोदशसूत्रतो बोध्यः, _ 'सेणं' वह जम्बपीठ 'एगाए पउमवरवेड्याए एगेण वणसंडेणं सवओ समंता' एक पावरवेदिका एवं एक वनषंड से चारों ओर से 'संपरिक्खिते व्याप्त रहता है ? 'दुण्डंपि वण्णओ' पद्मवरवेदिका एवं वनषंड का वर्णन सर्व प्रकार से यहां पर समझलेवें वह वर्णन पांचवें एवं छठे सूत्र से ज्ञातकर लेवें। वह जम्बूपीठ कम से कम चरमान्तमें दो कोस की ऊंचाइ वाला होने से सूख पूर्वक आना जाना कैसे बन सकता है ? इस शंका की निवृत्ति के लिए कहते हैं 'तस्स णं जंबूपेढस्स चउदिसी' वह पूर्वोक्त जंबूपीठ के चारों दिशा में 'एए च तारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्ण ता' यह चार सुंदर पगथिएं कहे हैं। उसका 'वण्णओ' समग्र वर्णन यहां पर समझलेवें वह वर्णन कहां तक का गृहण करने योग्य है ? इसके लिए कहते है 'जाव तोरणाई' यावत् तोरण वर्णन पर्यन्त उसका वर्णन यहां पर कहलेवें। त्रिसोपान प्रतिरूपकका वर्णन राजप्रश्नीय सूत्र के बारहवें सूत्र से एवं तोरण का वर्णन तेरहवें सूत्र से समझ पी. 'एगाए पउमवरवेइयाए एगेण वणसंडेणं सव्यओं समंता' मे ५५१२ २६ तभर से पनपथी या त२५५'संपरिक्खिते' व्यास २३ छ. 'दुण्हं पिवण्णओ' ५५२ વેદિકા અને વનખંડનું વર્ણન પાંચમાં અને છઠા સૂત્રથી સમજી લેવું. એ જંબૂ પીઠ ઓછામાં ઓછું ચરમાતથી બે ગાઉ જેટલી ઉંચાઈવાળું હોવાથી સૂખ પૂર્વક આવવા જવાનું (જવર અવર) કેવી રીતે થઈ શકે છે? આ પ્રકારની શંકાના समाधान भाटे ३ छ-'तस्सणं जंबूपेढस्स चउद्दिसी' से पूर्वात प्यूपानी थारे शाwi 'एए चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्ण ता' मा यार सु४२ पाथिया। ४३ छे. तेनु 'वण्णओ' सपू वन 248यां री से. ते न ४यां सुधानु अड ४२वानु छ ? ते भाटे ४३ छ-'जाव तोरणाई' यावत् तारना न तेनु qणुन PART याही લેવું. ત્રિસપાનપ્રતિરૂપકનું વર્ણન રાજપક્ષીય સૂત્રના બારમા સૂત્રમાંથી અને તેરણનું વર્ણન તેરમાં સૂત્રમાંથી સમજી લેવું. વિસ્તાર ભયથી અહીંયાં તેને ઉલેખ કરેલ નથી. જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્રા
SR No.006355
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages806
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size51 MB
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