SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 250
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू० २१ यमका राजधान्योर्वर्णनम् २३७ वर्णकतो महेन्द्रध्वजवत् 'उवरिं' उपरि 'छक्को से ओगाहित्ता' षट्क्रोशान अवगाह्य - प्रविश्य उपरितनान् षट् क्रोशान वर्जित्वा विहाय 'हेवा' अधः - अधस्तादपि 'छक्को से वज्जित्ता' षट् क्रोशान वर्जित्वा मध्येऽर्धपञ्चमेषु योजनेषु इति गम्यम्, 'जिस कहाओ' जिनसक्त्थीनिPraataara ' पण्णत्ता ओत्ति' प्रज्ञप्तानि इति, इह जिनसक्थिग्रहणे व्यन्तरजातीयानां देवानां नाधिकारो स्ति, किन्तु सौधर्मेशानचमरबलीन्द्राणामेव तद्ग्रहणेऽधिकारोऽस्तीति जिनसक्थीनि - जिनदंष्ट्रारूप सक्थीनि तत्र निक्षिप्तानि प्रज्ञप्तानीति बोध्यम्, अवशिष्टो वर्णकश्च जीवाभिगसूत्रोको बोध्यः स चैवम् 'तस्स णं माणवगचे इ यस्स खंभस्स उवरिं छक्कोसे ओगाहित्ता हेट्ठा वि छक्कोसे वज्जित्ता मज्झे अद्धपंचमेसु जोयणेसु एत्थ णं बहवे सुवण्णरुपमया फलगा पण्णत्ता तेसु णं बहवे वइरामया णागदंतगा पण्णत्ता, तेसु णं बहवे रययामया सिकगा पण्णत्ता, तेसु णं बहवे वइरामया गोलवट्टसमुग्गया पण्णत्ता, तेसु णं बहवे जिणसकाहाओ सपिण विखत्ताओ चिति, जाओ णं जमगाणं देवाणं अन्नेसिं च बहूणं वाणमंतराणं देवाण य (Bafi छक्कोसे ओगाहित्ता ) ऊपर के भाग में छ कोस जाने पर अर्थात् ऊपरका छ कोस के छोडकर एवं (हेट्ठा छ कोसे वजित्ता) नीचे से भी छह कोस वर्जित कर मध्य के साडे चार योजन में (जिण सकहाओ ) जिन के सक्थी - हड्डी (पण्णत्ताओ) कहें हैं यहां पर जिन सक्धी कहनेसे व्यन्तर जाती के देव का अधिकार नही है, किन्तु - सौधर्म, ईशान, चमर एवं बलीन्द्रका ही अधिकार आजाता है अतः 'जिन सक्थी' कहने से जिनकी दाढ रूपी हड्डी वहां रखी हुई है ऐसा समझ लेवें । शेष वर्णन जीवाभिगम में कहे अनुसार समझ लेवें । वहां वह वर्णन इस प्रकार हैं- 'तस्स णं माणवगचेइयस्स खंभस्स उवरिं छक्को से ओगाहित्ता' हेहा विछ कोसे वज्जित्ता, मज्झे अद्ध पंचमेसु जोयणेसु एत्थ णं बहवे सुवण्णरुप्पमया फलगा पण्णत्ता, तेसुणं बहवे वइरामया नागदंतगा पण्णत्ता, तेसुणं बहवे बहरामया गोलयवहसमुग्गया पण्णत्ता, तेस्रुणं बहवे जिण सकहाओ सणिक्खित्ताओ चिट्ठति, वाणो विगेरे महेन्द्रध्वना वर्णन प्रमाणे समन्वु 'उवरि' छक्कोसे ओगाहित्ता' उपरनी तरई छ असन्वाथी अर्थात् उपरना छ असने छोडीने 'एवं हेट्ठा छक्कोसे वज्जित्ता' नीथेना ७ ડાસ છેડીને વચલા સાડા मार योजनमा 'जिणसकहाओ' नसम्थि (हाउअ ) 'पण्णत्ताओ' हे छे. अहींयां कुन सथि उडेवाथी व्यन्तर लतिना हेवनो अधिकार नथी પરંતુ ઇશાન સૌધમ ચમર અને અલીન્દ્રનાજ અધિકાર આવી જાય છે. તેથી જીનર્સાથ કહેવાથી જીનની દાઢ રૂપ હાડકું ત્યાં રાખેલ છે તેમ સમજી લેવું. ત્યાં એ વર્ણન આ प्रभाशे छे. - 'तस्सणं माणवगचेइयरस खंभस्स उवरि छक्कोसे ओगाहित्ता हेट्टा वि, छक्कोसेवज्जित्ता मज्झे अद्धपंचमेसु जोयणेसु एत्थणं बहवे सुवण्णरुप्पमया फलगा पण्णत्ता तेसु णं बहवे वइरामया नागदंतगा पण्णत्ता, तेसु णं बहवे रययामया सिक्कगा पण्णत्ता तेसुणं बहवे जिणसकहाओसणिक्खित्ताओ चिट्ठति जाओ णं जमगाणं देवाणं अन्नेसिंच बहूणं बाणमतराणं देवाण य જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006355
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages806
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size51 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy