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________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २१ यमका राजधान्योर्वर्णनम् २१७ अनेकस्तम्भशतशन्निविष्टे अभ्युद्गतसुकृतवज्रवेदिकातोरणवररचितशालभजिकासुश्लिष्टविशिप्टसंस्थितप्रशस्तवैडूर्यविमलस्तम्भे नानामणिकनकरत्नखचितोज्ज्वलवहुसमसुविभक्तभूमिभागे ईहामृगवृषभतुरगनरमकरविहगव्यालककिन्नररुरुशरभचमरकुञ्जरवनलतापद्मलताभक्तिचित्रे स्तम्भोदगतवनवेदिकापरिगताभिरामे विद्याधरयमलयुगलयन्त्रयुक्ते इव अचिः सहस्रमालनीये रूपकसहस्रकलिते भासमाने बाभास्यमाने चक्षुर्लोकनश्लेषे सुखस्पर्शे सश्रीकरूपे काञ्चनमणिरत्नस्तू पिकाके नानाविधपञ्चवर्णवण्टापताकापरिमण्डिताग्रशिखरे धवले मरीचिकवचं विनिर्मुश्चन्त्यौ लायितोल्ल यितमहिते गोशीर्षसरससुरभिरक्तचन्दनदईरदत्तपञ्चा गुलितले उपचितचन्दनकलशे चन्दनघटसुकृततोरणप्रतिद्वारदेशभागे आसक्तोत्सतविपुलवृत्तावलम्बितमाल्यदामकलापे पञ्चवर्णसरससुरभिमुक्तपुष्पपुञ्जोपचारकलिते कालागुरुप्रवरकुन्दुसम्व रयणा मईओ अच्छाओ जाव पडिरूवाओ' अनेक सेंकडों स्तंभो से युक्त समीपस्थ सुकृत वज्रवेदिका के श्रेष्ठ तोरण के ऊपर शालभञ्जिका -पुत्तलिका की रचना वाली अच्छे प्रकारसे संस्थित प्रशस्त वैडूर्यमणि का स्तंभ जिस में हैं ऐसी अनेक प्रकार के मणि, सुवर्ण एवं रत्नों से जिसका भूमिभाग खचित अत एव प्रकाशयुक्त भूमिभाग वाली, ईहामृग वृषभ, तुरग, नर, मगर, विहग, ध्यालक, किन्नर, रुरु, शरभ, चमरी गाय, हाथी, वनलता, पद्मलता, के चित्र से युक्त, स्तम्भ के भीतर वनवेदिका होनेसे अत्यंत मनोरम, विद्याधरों के यमल युगलों के यन्त्र युक्त न हो ऐसी सेंकडो किरणों से व्याप्त, हजारों रूपों से युक्त, प्रकाशमान, अत्यंत प्रकाशमान नेत्र से अवलोकनीय सुखद स्पर्शवाले सश्रीक रूपवालो कांचन, मणि एवं रत्नों की स्तृपिका वाली अनेक प्रकार के पंचवर्णवाले घण्टा एवं पताका-ध्वज से जिसका अग्रशिखर परिमंडित है ऐसी श्वेत किरण रूपी कवच को छोडनेवाली लीपी पोती अतः महित-शोभित गोरोचन रससे युक्त ऐसे चंदन के घट से प्रति द्वार में तोरण बनाये हैं जिस में ऐसी चारं चार सिक्त करने से बडि एवं गोलाकार लंबी मालाओं के समूहवाली पांच વાળી સારી રીતે રહેલ શ્રેષ્ઠ વૈડૂર્યમણિના સ્તંભ જેમાં છે, એવા અનેક પ્રકારના મણિ, સુવર્ણ તેમજ રત્નોથી જેને ભૂમિભાગ જડેલે છે અને એટલે જ પ્રકાશવાળે છે તથા मेम स२५॥ भने सुविमत भूभिवानी, भूत, वृषभ, तु२१, २, भा२, सिड, व्यास, न२, २२, २२म यमरी-आय, हाथी, वनसता, पसताना स्त्रिाथी युत स्तनमा વા વેદિકા હોવાથી, અત્યંત મનોરમ, વિદ્યાધરેના યુગલો યંત્રયુક્ત જ ન હૈય? એવી સેંકડે કિરણોથી વ્યાપ્ત, હજારો રૂપિથી યુક્ત, પ્રકાશમાન, અત્યંત પ્રકાશમાન આંખેથી જેવા લાયક, સુખદ સ્પર્શવાળી, શ્રીકરૂપવાળી, કાંચન, મણિ તથા રત્નની તૃપિકાવાળા અનેક પ્રકારના પાંચ વર્ણવાળા ઘંટા તેમજ પતાકા-ધજાઓથી જેને અગ્રભાગ શોભાય માન છે, એવ, ધોળા કિરણરૂપી કવચાને છેડવાવાળી, લીપેલ તથા ધૂળેલ, અને તેથી જ મહિત-ભિત ગોરોચન રસથી યુક્ત એવા ચંદનના ઘડાઓથી દરેક દ્વારોમાં તેરણ ज०२८ જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્રા
SR No.006355
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages806
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size51 MB
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