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________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू० १४ हरिवर्षक्षेत्रनिरूपणम् १२५ दाहिणेणं चउरासी जोयणसहस्साई सोलस जोयणाई चत्तारि एगुणवीसइ भाए जोयणस्स परिक्खेवेणं' तस्य धनुः दक्षिणेन चतुरशीतानि चतुरशीत्यधिकानि योजन सहस्राणि षोडशयोजनानि चतुर एकोनविंशति भागान् योजनस्य परिक्षेपेण । अथ हरिवर्षस्य स्वरूपं पिपृच्छिपुराह - 'हरिवासस्स णं भंते ' इत्यादि, हे भदन्त ! हरिवर्षस्य खलु वर्षस्य 'केरिसए आगार - भावपडोयारे' कीदृशकः - कीदृशः आकारभावप्रत्यवतारः तत्राऽऽकारः - स्वरूपं, भावा: - पृथि वीवर्षधरप्रभृतयस्तदन्तर्गताः पदार्थाः तद्युक्तः प्रत्यवतारः - प्रकटीभावः 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः ? इति प्रश्ने भगवानुत्तरमाह - 'गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे' हे गौतम ! बहुसमरमणीयः बहुसमः अत्यन्तसमो अत एव रमणीयः - सुन्दरः 'भूमिभागे पण्णत्ते' भूमिभागः प्रज्ञप्तः, स च कीदृशः इत्याह- 'जाव मणीहिं तहिं य उवसोभिए' यावत् मणिभिः अत्र यावत्पदेन नानाविध पञ्चवर्णैरिति संग्राह्यम् - एतादृशैः मणिभिः वैडूर्यस्फटिकादिभिरुपशोभित इत्यग्रिमेण सम्बन्धः, जोयणसहस्साई सोलस जोयणाई चत्तारि एगूणवीसइभाए जोयणस्स परिक्खेवेणं) इसका धनुःपृष्ठ परिक्षेप की अपेक्षा दक्षिण दिशा में ८४०१६ योजन का है (हरिवासस्स णं भंते! वासस्स केरिसए आयार भावपडोयारे पण्णत्ते) अब गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है - है भदन्त ! हरिवर्ष क्षेत्रका आकार भाव प्रत्यवतार - स्वरूप - कैसा कहा गया है इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - ( गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, जाव मणीहिं तणेहिय उवसोभिए एवं मणी ताण य वण्णो गंधो फासो सहो भाणियव्वो) हे गौतम! हरिवर्ष क्षेत्रका भूमिभाग बहुसमरमणीय कहा गया है यावत् वह मणियों से और तृणों से उपशोभित है इसी प्रकार से मणियों के एवं तृणों के वर्ण, गंध, स्पर्श और शब्द का यहां पर वर्णन करलेना चाहिये यहां पर 'जाव मणीहिं' के साथ आगत यावत्पद से 'नानाविध पंचवर्णै:' इस विशेषणरूप पद का ग्रहण हुआ है वर्ण गंधादि कों का वर्णन राजप्रश्नीय सूत्र के १५ वें सूत्र से लेकर १९ वें सूत्र तक जोयणसहस्साई सोलस जोयणाई चत्तारि एगूणवीसइभाए जोयणस्स परिक्खेवेणं' थे। धनुपृष्ठ परिक्षेपनी अपेक्षाये हक्षिण दिशामां ८४०१६ योजन भेटलो छे. 'हरिवासरसणं भंते ! वासस्स केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते' हवे गौतमे प्रभुने मा જાતના પ્રશ્ન કર્યાં કે હે ભદત! હરિવષ ક્ષેત્રના આકાર ભાવ પ્રત્યવતાર એટલે કે સ્વરૂપ वु' म्हेवामां आवे छे. सेना वाणमां अलु आहे छे - 'गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमि भागे पण्णत्ते, जाव मणीहिं तणेहिय उवलोभिए एवं मणीणं तणाणय वण्णो गंधो फासो सद्दो भाणियव्वो' हे गौतम! हरिवर्ष क्षेत्रनेा भूभिलाग णडुसभरमणीय आहेवामां आवे छे. યાવત્ તે મણિઓથી અને તૃણેાથી ઉપશે।ભિત છે. આ પ્રમાણે જ મણિએના તેમજ तृणना वर्षा, गंध, स्पर्श मने शहनु महीं वार्जुन उरी सेवु लेह थे. सहीं' 'जाव मणिहि नी साथै मावेस यावत् पहथी 'नानाविधपचवर्णः' से विशेष ३५ पहनुं ग्रहण थयुं જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006355
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages806
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size51 MB
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