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________________ प्रकाशिका टीका तृ ०३वक्षस्कारः सू० २६ भरतराज्ञः दिग्यात्रावर्णनम् ८४१ विजयशब्दाभ्यां वर्द्धयति 'वद्धावित्ता' वर्द्धयित्वा स सेनापतिः 'अग्गाई वराई रयणाई उवणेई' अग्र्याणि बराणि रत्नानि उपनयति अर्पयति राज्ञः समीपम् आनयति इत्यर्थः 'तएणं से भरहे राया सुसेणस्स सेणावइस्स अग्गाई वराइं रयणाई पडिच्छइ' ततः आनयनानन्तरं खलु स भरतो राजा सुषेणस्य सेनापतेः अग्र्याणि वराणि रत्नानि प्रतीच्छति गृह्णाति 'पडिच्छित्ता'पतीष्य गृहीत्वा 'सुसेणं सेणावई सक्कारेइ सम्माणे सक्कारिता सम्माणित्ता पडि विसज्जेइ' स भरतो राजा सुषेणं सेनापति सत्कारयति वस्त्रालङ्कारादि पुरस्कारैः सन्मानयति मधुरवचनादिभिः, सत्कार्य सन्मान्य च प्रतिविसर्जयति निजनिवासस्थान प्रतिगन्तुमाज्ञापयतीत्यर्थः 'तएणं से सुसेणे सेणावई भरहस्म रणो सेसंपि तहे व जाव विहरई' ततः खलु भरतस्य राज्ञः सेनापतिः स सुषेणः शेषमपि अवशिष्टमपि तथैव पूर्वोक्त सिन्धुनिष्कुटसाधनवदेव यावत् स्नातः, कृतवलिकर्मा, कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्त इत्यारभ्य यावत्प्रासादवरं प्राप्तः सन् इष्टान् इच्छाविषयीकृतान् शब्दस्पर्शरसरूपगन्धान पञ्चविधान मानुष्यकान् मनुष्यसम्बन्धिनः कामभोगान तत्र शब्दरूपे कामौ स्पर्शरसगन्धाः भोगाः उन्हें अंजलि के रूपमें कर भरतमहाराजा को जय विजय शब्दों से बधाई दी (बद्धावित्ता अगाई वराई रयणाई उवणेइ) वधाई देकर फिर उसने श्रेष्ठ रत्नों को उसके लिये अर्पित किया-राजा के पास उन्हें रक्खा (तएणं से भरहे राया सुसेणस्स सेणावइस्स अगाईवराइ रयणाई पडिच्छद) भरतनरेश ने उस सुषेण सेनापति के उन प्रदत्त श्रेष्ठ रत्नों को स्वीकार करलिया. (पडिच्छित्ता सुसेणं सेणावई सक्कारेइ सम्माणेइ) स्वीकार करके फिर उसने सुषेण सेनापति का सत्कार और सन्मान किया—(सरकारिता सम्माणित्ता पडिविसज्जेइ) सत्कार सन्मान कर फिर भरत नरेश ने उसे विसर्जित कर दिया. (तएणं से सुसेणे सेणावई भरहस्स रण्णो सेसंपि तहेव जाव विहरइ) इसके बाद भरत नरेश के पास से आकर वह उस सुषेण सेनापति ने स्नान किया बलि कर्म किया कौतुकमंगल प्रायश्चित किये यावत् वह अपने श्रेष्ठ प्रासाद में पहुंचकर. इच्छानुसार शब्द, स्पर्श, रस रूप और गंध विषयक पांच प्रकार के कामभोगों को भोगने लगा. शब्द रूप અને હાથ ને જોડી ને અને તેમને અંજલિ રૂપમાં બનાવીને ભરત મહારાજાને જય-વિજય शही पडे धामणी भापी. (बद्धावित्ता अग्गाई वराई रयणाई उवणेइ) वधामा मापान ५छ। तो तलत महाजन श्रे० २.ना मपित -२०नी सोभे श्रे० २.नो भूया. (तएणं से भरहे राया सुसेणस्स सेणाचइस्ल अग्गा वराई रयणाई पडिच्छइ) १२त नरेशे ते अपेक्षा सेनापति बडे प्रहत्त नाना स्वी२ ध्ये. (पडिच्छित्ता सुसेणं सेणावई सक्कारेइ सम्माणेइ) स्वी२ ४शन पछी तेणे सुषे सेनापतिन। स२ : मने सन्मान यु (सक्कारिता सम्माणित्ता पडिविसज्जेइ) स४२ भने सन्मान ४शन पछी मरत नरेशेते सुषे सेनापति ने मा२धू विसात या. (तएणं से सुसेणे सेणावई भरहस्स रण्णो सेपि तहेव जाव विहरइ) त्या२ मा मरत नरेश पासे थी पाताना माथास-स्थान ६५२ मावी न सुषे सेनाપતિએ સ્નાન કર્યું, ખલિકમ કર્યું, કૌતુક મંગળ, પ્રાયશ્ચિત્ત કર્યા. યાવત તે પિતાના શ્રેષ્ઠ પ્રાસાદમાં પહોંચીને ઈચ્છાનુસાર શબ્દ, સ્પર્શ, રસ રૂપ અને ગંધ વિષયક પાંચ પ્રકારના જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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