SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 844
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८३२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे मागधगमवद् वाच्यम् 'नवरं उत्तरेणं चुल्लहिमवंतमेराए' उत्तरतः क्षुद्र हिमवद्विरिमर्यादम् इति 'अम्हे णं देवाणुप्पियाणं विसयवासिणोत्ति' आवां देवानुप्रियाणाम् आज्ञप्तिकिङ्कराविति कृत्वा तत्प्रतीच्छन्तुअङ्गीकुर्वन्तु खलु देवानुप्रियाः ! अस्माकमिदं यावत्पदात् एतद्रूपं प्रीतिदानमिति कृत्वा विनमिः उत्तर श्रेण्याधिपतिः स्त्रीरत्नं समर्पयति नमिः दक्षिणश्रेण्याधिपतिः विविधप्रकाराणि रत्नानि तस्मै राज्ञे उपहाररूपेण ददातीत्यर्थः 'तए णं से भरहे राया जाव पडिविसज्जेइ' ततः स्त्रीरत्न -रत्नसमर्पणानन्तरं खलु स भरतो राजा यावत् पदात् प्रीतिदानग्रहणसत्कारसम्मानादि ग्राहम् प्रतिविसर्जयति तौ विनमि नमी स्वस्व गृहगमनाय आदिशति 'पडिविसज्जिता ' तौ विद्याधराधिपौ प्रतिविसृज्य आदिश्य 'पोसह सालाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता मज्जणवरं अणुष्पविसइ' स भरतो राना पौषधशा लातः प्रतिनिष्क्रामति निर्गच्छति प्रतिनिष्क्रम्य निर्गत्य मज्जनगृह स्नानगृहम् अनुप्रविशति 'अणुपविसित्ता' मज्जनगृहम् अनुप्रविश्य स्नानविधिः पूर्णोऽत्रवाच्यः, ततः 'भोयणमंडवे को भरत राजा के लिये भेंट में दे दिया (नवरं उत्तरेणं चुल्लहिमवंतमेराए अम्हे देवाणुपियाणं विसयवासिणोत्ति) भेंट देने के साथ २ उन्होंने" हम दोनों क्षुद्रहिमवत्पर्वत की हद में आगत उत्तरश्रेणिके अधिपति विनमि और नमि विद्याधराधिपति हैं और अब आपके ही देश के निवासी बन चुके है" इस प्रकार से अपना परिचयादया. (तएण से भरहे राया जाव पडिविसज्जेइ) इस प्रकार उनके द्वारा भेट में प्रदत्त स्त्रीरत्न एवं रत्नादिक को स्वीकार करके भरत राजा ने उनका सत्कार किया और सम्मान किया बाद में उन्हें अपने अपने स्थान पर जाने का आदेश दे दिया (पडिविसज्जिता पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ) इस प्रकार उन्हें विसर्जित करके भरत राजा पौषधशाला से बाहर निकले ( पडिणिक्खमित्ता मज्जणघरं अणुप्पविसइ) बाहर निकल कर वे स्नान घर में गये. (अणुपविसित्ता भोयणमंडवे जाव णमि विनिर्माणं विज्जाहरराईणं अट्ठाहिय महामहिमा ) वहां पहुँच कर उन्होंने स्नान किया यहां पर स्नानविधि का पूर्णरूप से वर्णन कर लेना चाहिये. नभि रत्नाहिओ लरत राम ने लेटमां माध्यां (नवरं उत्तरेण चुल्लहिमवंतमेरा अम्हे देवाणुपिया णं विसयवासिणोत्ति) लेट आपवानी साथ-साथै तेभो "अमेजन्ने क्षुद्रांsમવપર્યંતની સીમામાં આવેલા ઉત્તર શ્રેણિના અધિપતિ વિનમિ અને નમિ વિદ્યાધરાધિપતિ એછીએ અને હવે અમે આપશ્રીના દેશના જ નિવાસી થઇ ગયા છીએ “આ પ્રમાણે पोतानी भोजभाशु आयी. (तरण से भरहे राया जाव पडिविसज्जेइ ) था प्रभा तेभना વડે ભેટમાં પ્રદત સ્ત્રીરત્ન તેમજ રત્નાદિક ને સ્વીકારી ને ભરત મહારાજાએ તે બન્નેનો સત્કાર કર્યાં અને તેએ બન્નેનુ સન્માન કર્યું. ત્યાર બાદ તેને પાત-પેાતાના સ્થાને भवानो राम खे आहेश याच्ये (पडिविसज्जित्ता पोसहसालाओ पडिणिक्खमई) मा प्रभा તે બન્નેને વિસર્જિતકકરીને ભરત રાજા पौषध शाणा भांथी महार नीउज्यो. (पंडिनिमित्ता मज्झणधरं अणुष्पविसइ) महार नीजी ने ते रामस्नान धरमां गये. (अणुप विसित्ता भोयणमंडवे जाव णामि विनिमीणं विज्जाहरराईणं अट्ठाहिय महामहिमा) જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy