SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 794
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७८२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे जनावधिक सैन्यसमूहस्योपरि स्थापयति 'ठवित्ता मणिरयणं परासुस' स्थापयित्वा मणिरत्नं परामृशति स्पृशति गृह्णाति 'वेढो जाव त्ति' अत्र मणिरत्नस्य वेष्टको वर्णको यावदिति सम्पूर्णो वक्तव्यः पूर्वोक्तः, स च 'तोतं चउरंगुलप्पमाणं' इत्यादिकः 'परामुसित्ता' परामृश्य 'छत्तरयणस्स वस्थिभागं ठवेइ' चर्मरत्नच्छत्ररत्न सम्पुटमिलन निरुद्ध सूर्यचन्द्राद्या लोके सैन्येऽहर्निशमुद्योतार्थं छत्ररत्नस्य वस्तिभागे अत्र वस्ति शब्देन अवयव - रूपोऽर्थी गृह्यते तेन छत्रस्य अवयवविशेषे शलाकामध्यभागे मणिरत्नं स्थापयति, नवेवं सकल सैन्यानामवरोधे जाते सति कथं तेषां भोजनादि विधिरित्याशङ्कमानं प्रत्याह- गृहपतिरत्नं सर्वमत्र पानादिकं निष्पाद्य सर्वा भोजनव्यवस्थां करोतीति अग्रे ने जब अपने स्कन्धावार के ऊपर छत्ररत्न को तान दिया- तब इसके बाद उसने ( मणिरयणं परामुसई) मणिरत्न को उठाया (वेढो जाव छत्तरयणस्स वस्थिभागंसि ठवेइ ) इस मणिरत्न का यहां सम्पूर्णवर्णकपाठ " तोतं चउरंगुलप्पमाण" यहां तक जैसा पहले कहा गया है वैसा ही कहलेना चाहिए उस मणिरत्न को उठा करके उसे उसने छत्ररत्न के वस्ति; भाग मेंशलाकाओं के मध्य में रखदिया क्योंकि चर्मरत्न- ओर छत्ररत्न के परस्पर में मिल जाने से उस समय सूर्य और चन्द्र का प्रकाश निरुद्ध हो गया था इसलिये सैन्य में अहर्निश प्रकाश ना रहे इस अभिप्राय से उसने मणिरत्न को छत्ररत्न की शलाकाओ के मध्यभाग में रखदिया ( तस्सय अणतिवरं चारुरूवं सिलणिहि अत्थमंतमेत सालि-जब गोहुम मुग्गमासतिलकुलत्थ सद्विगनिफा व चणगकोदव कोथंमरिकंगुबरगरालग अणेगघण्णावरण हारिभग. अल्लग मूलगहलिहलाउ अतउस तुंबकालिंग कविट्ठ अंव अंबिलिअ सम्वणिफायए ) अब सूत्रकार चक्रवर्ती केसैन्य को भोजनादिविधि की व्यवस्था करने वाले गृहपतिरत्न के सम्बन्ध में यहां से यह कथन प्रारम्भ करते हैं- इसमें ऐसा कहा गया हैं कि चक्रवर्ती के पास एक गृहपतिरत्न भी होता है न्यारे पोताना सुधावारनी उपर छत्ररत्न ताली सीधु त्यारे तेथे (मणिरयणं परामुसइ) मणिरत्न ने 8. (वेढो जाव छत्तरयणस्स वत्थिभागंसि ठवेइ) मे मणिरत्न विशे महीं संपूर्ण पाठ 'तोतं चउरंगुलप्पमाणं' ही सुधी प्रेम म्हेवामां माव्यु छे, तेवु भ સમજવું જોઇએ તે મણિરત્નને ઉઠાવીને તેણે તે મણિરત્નના વસ્તિભાગમાં શલાકાઓના મધ્યમાં મૂકી દીધુ, કેમકે ચરત્ન અને છત્રરત્નને પરસ્પર મળવાથી તે સમયે સૂર્ય અને ચન્દ્રના પ્રકાશ રાકાઇ ગયા હતા. એથી સૈન્યમાં અહર્નિશ પ્રકાશ કાયમ રહે તે भाटे तेथे मणिरत्नने छत्ररत्ननी शायना मध्यभागमां भूडी हीधु हेतु. ( तस्स य अणति वरं चारुरूवं सिलणिहि अत्थमंत मेत्तसालि जब गोहम मुग्ग मास तिलकुलत्थ सग निप्फावचणगकोद्दव कोथुंभरि कंगुवरगरालग अणेगघण्णावरण हारिअगअल्लग मूलगाहलिहलाउ अत उस तुंब कालिंग कविट्ठ अवअंबिलिअ सव्वणिफायर) હવે સૂત્રકાર ચક્રવતીના સૈન્યની લેાજનાદિ વિધિની વ્યવસ્થા કરનાર ગૃહપતિ રત્નના સબધમાં અહીં થી કથન પ્રારંભ કરે છે. એ કથનમાં આ પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યું છે કે ચક્રવતીની પાસે એક ગૃહપતિરત્ન હોય છે અને એ રત્નજ ચક્રવતીના વિશાળ સૈન્ય જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy