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________________ प्रकाशिका टीका तृ० वक्षस्कारः सू० ११ सिन्धुदेवीसाधन निरूपणम् चद्वे कनकभद्रासने सिंहासनद्वयं कटकानि च यावत् स एव मागधदेवगमोत्रानुसर्त्तव्यः यावत् प्रतिविसर्जयति यावत्पदात् स भरतः प्रीतिदनं स्वीकरोति ततस्तां देवी सत्कारयति सन्मानयति प्रतिविर्जयति च स्वस्थानगमनाय अनुमन्यते बाणप्रयोगमन्तरेणैव सिन्धुदेव्याः साधनं जात मितिभावः तदुत्तरविधिमाह - 'तरणं' इत्यादि 'तरणं से भरहे राया पो सहसालाओ पडिणिक्खमइ' ततः खलु स भरतो राजा पौषधशालातः प्रतिनिष्क्रामति निर्गच्छति 'पडिणिक्खमित्ता' प्रतिनिष्क्रम्य निर्गत्य 'जेणेव मज्जनघरे तेणेव उवागच्छइ' यत्रैव मज्जनगृह - स्नानगृहम्, तत्रैव उपागच्छति 'उवागच्छित्ता' उपागत्य ' हा कयबलिकम्मे जाव जेणेव भोयणमंडवे तेणेव उवागच्छर' स्नातः कृतबलिकर्मा - काकेभ्यो दत्तान्नभागः सन् यावत् यत्रैव भोजनमण्डपस्तत्रैव उपागच्छति 'उवागच्छित्ता' उपागत्य 'भोयणमंडवंसि सुहासणवरगए अट्टमभत्तं परियादियइ' भोजन हो रही हैं ऐसे दो कनक मय भद्रासनों को, दो कटकों को एवं त्रुटितों की भेंट रूप में महाराजा भरत चक्री के लिये प्रदान किये। यहां पर मागध देव के प्रकरण में कहा गया सब विषय यावत्पद से गृहीत हुआ है- -अतः सिन्धु देवी द्वारा प्रदत्त सब नजराना महाराजा भरतचकी ने स्वीकार कर लिया । और फिर उनका सम्मान और सत्कार के साथ उसने सिन्धु देवी को विसर्जित कर दिया यहां यह विशेष कथन जानना चाहिये कि महाराजा भरतचक्री ने जो सिन्धुदेवो को वश में किया है वह विना बाण के प्रयोग के किया है ( तरणं से भरहे राया पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ ) इस के बाद भरतचको पौषधशाला से बाहर आये ( पडिणिक्स्वमित्ता जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छ ) और बाहर आकर के वे जहां पर स्नान गृहथा वहां पर गये । ( उवागच्छित्ता हाए कयबलिकम्मे जाव जेणेव भोयणमंडवे तेणेव उवागच्छइ ) वहां जाकर उन्होंने स्नान किया और स्नान करके बलिकर्म किया - काक आदिकों के लिये अन्न का विभाग किया। फिर वे वहां भोजन मंडप में आये ( उवागच्छित्ता भोयणमंडवंसि सुहासनवरगए अट्टमभत्तं परियादियइ ) वहां आकर के वे उस भोजन मंडप में सुखासन से बैठ કનક તેમજ રત્નાથી જેમાં રચના થઈ રહી છે એવા એ કનક ભદ્રાસના, બે કટકા તેમજ ત્રુટિતા ભરતચક્રીને અર્પણ કર્યાં. અહીં' મગધદેવના પ્રકરણમાં વર્ણિત સમસ્ત વિષય યાવત્ પદથી ગૃહીત થયેલા છે. આમ સિન્ધુ દેવી દ્વારા પ્રદત્ત સવ નજરાણુ ભરતચક્રીએ ગ્રહણ કરી લીધું અને પછી સમ્માન અને સત્કાર સાથે તેણે સિધુ દેવીને વિસર્જિત કરી દીધી. અહી એ વિશેષ કથન જાાણવુ જોઇએ કે ભરતચક્રીએ જે સિન્ધુદેવીને વશમાં કીધી તે आए। नाप्रयोग विना ? (तपणं से भरहे राया पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ) त्यार माह भरतयकी पौषधशाणामांधी महार आव्या (पडिणिकखमित्ता जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ) मने महार भवीने नयां स्नान गृह हेतु त्यां गया. (उद्यागच्छित्ता व्हाए कयबलिकम्मे जाव जेणेव भोयणमंड़वे तेणेव उबागच्छइ) त्यां कहने ते स्नान यु ने स्नान કરીને લિકમાઁ કયુ એટલે કેકાક વગેરે માટે અન્નના ભાગ કર્યાં. પછી તે ત્યાંથી ભેજન मंडपमां याव्या. ( उवागच्छत्ता भोयणमंडवंसि सुहासणवरगए अट्ठभत्ते परियादियइ) त्यां ६५३ જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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