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________________ प्रकाशिकाटीका द्विवक्षस्कार सू. ५२ चतुर्थारकस्वरूपनिरूपणम् पालयन्ति अनुभवन्ति (पालित्ता) पालयित्वा तत्र (अप्पेगइया) अप्येकके केचित् (णिरयगामी) निरयगामिनः नरकगामिनः (जाय) यावत्- यावत्पदेन- "तिर्यग्गामिन। मनुष्य गामिनः" इति संग्राह्यम्, (देवगामो) देवगामिनः (अप्पेगइया) अप्येकके केचित् मनुनाः (सिझंति) सिध्यन्ति सिद्धि प्राप्नुवन्ति (बुझंति) बुध्यन्ते- बोधं केवलज्ञानं प्राप्नुवन्ति 'जाव' यावत् -- "मुञ्चति, परिणिव्याति" इति संग्राह्यम्, तस्य "मुच्यन्ते परिनिर्वान्ति" इतिच्छाया, तत्र मुच्यन्ते इत्यस्य सकलकर्मबन्धान्मुक्ता भवन्तीत्यर्थः, परिनिर्वान्ति- पारमार्थिक सुखं प्राप्नुवन्ति, 'सव्यदुक्खाणमंत' सर्वदुःखानामन्त नाशं 'करेंति' कुर्वन्ति, अथ पूर्व समाप्ती विशेषमाह -'तोसे' तस्यां 'ण' खलु 'समाए' समायां काले 'तो' त्रयः- त्रिसंख्याः 'वंसा' वंशाः वंशा इव वंशाः प्रयाहाः- आपलिकाः, न तु सन्तानरूपाः परम्पराः परस्परं पितृपुत्रपौत्रप्रपौत्रादिव्यवहाराभायात् 'समुप्पज्जित्था' समुदपधन्त- समुत्पन्ना अभूवन् 'तं जहा' तद्यथा 'अरहंतवंसे' अर्हद्वंशः १ 'चकचट्टियंसे' चक्रवर्तिवंशः २ 'दसारवंसे' दशाहवंशः ३ तत्र दशाहवंशः- दशार्हाणां बलदेववासुदेवानां वंशो दशाहवंशः, यदत्र दशारशब्देन बलदेववासुदेवयोर्ग्रहणं तदुत्तरसूत्रबलादेव बोध्यम्, गइया" कि तनेक जीव “णिरेयगामी" नरकगामी होते है, "जाव" यावत् कितनेक जीव तिर्यग्गामी होते हैं, कितनेक जीव मनुष्य गामी होते हैं और कितनेक जीव "देवगामी” देवगामी होते हैं. तथा कितनेक जीव सिझंति" सिद्धि गति को प्राप्त होते है. 'बुझंति' जाव मुच्चंति, परिणिव्याअन्ति" कितनेक केवलज्ञान को प्राप्त करते हैं, यावत् सकल कर्मों के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं और पारमार्थिक सुख को प्राप्त कर लेते है "सव्वदुक्खाणमंतं करेंति" आर समस्त दःखों का अन्त कर देते हैं तीसे समाए तओ वसा समुप्पज्जित्था-तं जहा-अरहंतवंसे चक्कवहिवंसे २ "दसारवंसे" उस काल में ३ तीन वंश उत्पन्न हुए-एक अहेवश दूसरा चक्रवर्ति वंश और तीसरा दशाह वंश इन अर्हन्त प्रभु की जो वंश, है वह अहवंश और चक्रवर्ती का जो वंश हैं वह चक्रवात वंश है तथा बलदेव और वासुदेवों के वंश को दशाहे वंश कहा गया हैं. यहां पर जो दशार पहिरो हेपामा माय छे. मारहामायु सोपीने "अप्पेगडया" सार Man जिरयगामी” न२४ गभी हाय छे. यावत् 281 21 तिय भी काय या भनुष्याभी डायछ मन ईटमा ७ "देवगामी यशाभी डायजे. तभाटा “सिज्झति सिद्धिगतिन प्रात ४३ छे. "बुज्झंति जाव मुच्चति परिणिच्या अतिटमा छ। विज्ञान प्राप्त २ छ. यावत् स भनी मनाथी भात थालय छ, पारमाथि सुमने प्रात ४३ छ. “सबदुक्खाणमंतं करेंति” भने सभात मोना मन्त ४ ना छे. 'तीसे समाए तओ वंसा समुप्पजित्था तं जहा अरहंतवंसे चक्कयद्वियंसे २ दसारवंसे' ते मात्र उत्पन थया-3 महश, मीन ચકવતિ વંશ ત્રીજે દશાહ વંશ. એ ત્રણે માં જે અહંત પ્રભુનો વંશ છે, તે અવંશ અને ચકવતીને જે વંશ છે તે ચક્રવતી વંશ છે. તેમજ બલદેવ અને વાસુદેવના વંશને દશાહ વંશ કહેવામાં આવે છે. અહીં' જે દર શબ્દથી બલદેવ વાસુદેવનું ગ્રહણ કરવામાં જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્રા
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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