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________________ प्रकाशिकाटीका द्वि० वक्षस्कार सू. ४१ भगवतः श्रमण्णवस्थावर्णनम् ३७३ अरतिः-मनस उद्वेगः, भयं प्रसिद्धं, परित्रासः-आकस्मिकं भयं च यस्मात् स तथाभूतः, पुनः ‘णिम्ममे' निर्ममः ममत्वरहितः, 'णिरहंकारः' अहङ्कार वर्जितः, अतएव लहुभूए' लघुभूतः ऊर्ध्वगतिकः तत एव 'अगंथे' अग्रन्थः बाह्याभ्यन्तरग्रन्थिरहितः 'वासीतच्छणे' वासीतक्षणे वास्या सूत्रधारोपकरणविशेषेण यत्तक्षणं-त्वच उत्खननं तत्रापि 'अदुट्टे' अद्विष्टः-द्वेषवर्जितः तथा 'चंदणाणुलेवणे' चन्दनानुलेपने 'अरत्ते' अरक्तः-रागरहितः, कश्चिद् भगवतः शरीरत्वचं वास्या तक्ष्णुयात् , कश्चित् शरीरं चन्दनेनानुलेपयेत , भगवान् द्वेषरागराहित्येन सम इतिभावः तथा 'लेटुम्मि' लेष्टौ लोष्ठे 'कंचणम्मिय' काञ्चने-सुवर्णे च 'समे' समः लोभराहित्येन तुल्यः, 'इहलोए' इहलोके-मनुष्यलोके 'परलोए' परलोके-देवभवादौ च 'अपडिबद्धे' अप्रतिबद्धः-सुखाशाराहित्येन अभिलाषरहितः, तथा 'जीवियमरणे' जीवितमरणे जीवितं च मरणं च जीवितमरणं तत्र 'निरवकंखे' निरवकाङ्क्षः-आकाङ्क्षा रहितः इन्द्रादिकृत सत्कारादिप्राप्तौ जीवितविषये मानसिक उद्वेग, भय, और परित्रास आकस्मिक भय इनसे सर्वथा रहित बन चुके थे, निर्मम ममता रहित हो चुके थे, निरहंकार अहंकार से वर्जित हो चुके थे, अतएव ये "लहुभूए" इतने अधिक हल्के उर्ध्वगतिक बन चुके थे. कि इन्हें वाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह को आवश्यकता ने अपने में नहीं बांधा, "अगंथे वासो" अतः निर्ग्रन्थ अवस्थायुक्त हुए इन प्रभु को अपने ऊपर "तच्छणे अदुटे" कुल्हाडाचलाने वाले के प्रति भो किसी प्रकार का द्वेष भाव नहीं था और अपने ऊपर "चन्दणाणुलेवणे अरत्ते" चन्दन का लेप करने वाले के प्रति थोड़ा सा भो राग भाव नहीं था, किन्तु दोनों प्रकार के प्राणियों पर इन के हृदय में सममाव था रागद्वेष से रहित परिणाम था, "लेहुम्मि कंचणम्मि य समे" ये लोष्ठ और काञ्चन में भेद बुद्धि से रहित हो चुके थे, "इहलोए" इसलोक में मनुष्यलोक में एवं “परलोए परलोक देवभव आदि में "अपडिबद्धे" इनको अभिलाषा बिलकुल ध्वस्त हो चुकी थी, "जीवियमरणे निरवकंखे" जीवन और मरण में ये आकांक्षा रहित बन चुके थे, इन्द्रादि द्वारा सत्कार की प्राप्ति होने ભય અને પરિત્રાસ-આકસ્મિક ભયથી સર્વથા રહિત બની ગયા હતા. નિર્મમ-મમતાથી રહિત થઈ ગયા હતા. નિરહંકાર-અહંકાર રહિત થઈ ગયા હતા. એથીજ એઓ શ્રી ૪ - મૂn” એટલા બધા હકા–ઉર્વગતિક થઈ ગયા હતા કે તેમને બાહ્ય અને આત્યંતર પરિગ્રહની मावश्यताम्मे पातानामा मया नही', 'अरांथे वासी' तथा नियमवस्था वाणा जनता ते प्रसुने पोतानी ५२ 'तच्छणे अदुहे' याचना२ ५२ ५५ तन द्वेष सावन हतमने पोताना ५२ 'चंदणाणुलेवणे अरत्ते' यहनना ५ ४२ना। प्रत्ये १२॥ सरको પણ રાગ ભાવ ન હતો. પરંતુ બન્ને જાતના પ્રાણીઓ તરફ તેમના હૃદયમાં સમ ભાવ उता-२ देष-विडीन थई गया ता. लेहुम्मि कंचणम्मिय समे' तया भागा मन सोनामा लेह मुधि विनाना २ गया हता 'इहलोए' मा समां-मनुष्य सभा मने 'परलोए' ५२ हेव सव माहिमा 'अपडिबद्धे' मेमनी मलाषा पूत: नाश पाभी हती. जीवियमरणे निरवकंखे न मने भरणमा सम्मामाक्षा २हित 25 गया हता, જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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