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________________ २३२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे मानरुचिररमणीयरोमराजयः-इह ऋजुकत्वादीनि रोमराजिविशेषणानि, तत्र ऋजुका-म. ज्वी-अवक्रा न कुटिला समा तुल्या न कापि दन्तुरा संहिता मिलिता न त्वन्तरिता जात्या स्वाभाविको मुख्या वा, तन्वी-सूक्ष्मा कृष्णा-कृष्णवर्णा, न तु कपिरोमवत्कपिशा स्निग्धा चिक्कणा सकान्तिः आदेया नेत्रस्पृहणीया ललिता-सुन्दरता सम्पन्ना सुजाता सूत्पन्ना मुविभक्ता समीचीनविभागसम्पन्ना कान्ता कमनीया अत एव शोभमाना रुचिररमणीया अत्यधिकमनोहरा रोमराजिः रोमवलिर्यासां तास्तथा, केचिद् ऋजुकत्वादीनि रोमविशेणान्याहः तथा सति व्यधिकरणबहुव्रीहे वलम्बनापत्तिरतो रोमराजिविशेषणान्येव युक्तानीति व्यधिकरणबहुव्रीहे रगतिकगतित्वात्तन्मतं न युक्तम् । 'गंगावत्त पयाहिणावत्ततरंग अंगर विकिरणतरुणबोहियआकोसायंतपउमंगभीरवियडणाभा' गङ्गावर्त्तप्रदक्षिणावर्ततरङ्गभङ्गरविकिरणतरुणबोधिताकोशायमानपद्मगम्भीरविकटनामा:-एतत्पदं मनुजवणेनप्रसङ्गेऽस्मिन्नेव सूत्रे पूर्व व्याख्यातं केवलं स्त्रीपुसत्वकृतो भेदः अन्यत्सर्वे समानम्, 'अणुब्भडपसत्थपीणकुच्छीओ' अनुद्भट प्रशस्तपीनकुक्षयः अनुद्भटौ-अस्पष्टौ प्रशस्तौ लाध्यौ पोनौ स्थूलौ कुक्षी-उदरस्य वामदक्षिणभागौ यासां तास्तथा, ' सण्णयपासाओ" बोहिय आकोसायंतपउम गंभीर वियडणाभा' इनकी रोमराजिऋजुक-ऋज्वी सरल होती है, वक्र. कुटिल नहीं होती है, सम- बराबरहोती है कमती बढती नहीं होती है-संहित-आपस से मिली हाई होती है. अन्तर से युक्त नहीं होती है. स्वभावतः पतली होती है. स्थूल नहीं होती है. कृष्णवर्ण वाली होती है. कपि के रोमों की तरह कपिश नहीं होता है. स्निग्ध-चिकनी होती है दर्दरी नहीं होता है, आदेय नेत्रों को स्पृहणीय होती है, ललित सुन्दरता से युक्त होती है, सुजात होती है. अच्छे ढंग से उत्पन्न हुई होती है, सुविभक्त होती है. अच्छी तरह विभाग से संपन्न होतो है. कान्त कमनीय होती है. अतएव यह बड़ी सुहावनी लगती है, और जितनी भी रुचिर वस्तुएँ हैं उनकी भी अपेक्षा यह अधिक रुचिर होती है "गंगावर्त प्रदक्षिणावर्त" आदि सूत्र मनुष्य वर्णन के प्रसङ्ग में इसी सूत्र में पहिले व्याख्यात हो चुका है "अणुब्भड पसत्थ पीणकरोमराई, गंगावत्त पयाहिणावत्ततरंगभंगुर विकिरण तरुण बोहिअ आकोसायंत पउम गंभीरविअडणाभा" मेमनी म -*वी स२१ हाय छे. १४ दुटि हाती નથી. સમ બરાબર હોય છે. સહિત પરસ્પર મિલિત હોય છે. અન્તરથી યુક્ત હોતી નથી સ્વભાવતઃ પાતળી હોય છે. સ્થૂલ હોતી નથી કૃષ્ણ વર્ણવાળી હોય છે, કપિના રોમની જેમ કપિશ હોતી નથી. સ્નિગ્ધ સુચિકકકણ હોય છે, ખરબચડી હતી નથી આદેય નેત્રો માટે સ્પ્રહણીય છે. લલિત સુંદરતાથી યુક્ત હોય છે સુજાત હોય છે. સારી રીતે ઉત્પન થયેલ હોય છે. વિભકત હાય છે. સારી રીતે વિભાગથી સંપન્ન હોય છે. કાન્ત-કમનીય છે એથી તે ખૂબજ સેહામણું લાગે છે. અને જેટલી રુચિકર વસ્તુઓ છે તે સર્વ કરતાં તે વધારે २२२ डाय छ, “गंगावर्त प्रदक्षिणावर्त" वगेरे सूत्र मनुवा नना प्रसभा भी सूत्रन १९ मा ५८i व्यभ्यात येत छ. "अणुब्भडपसत्थपीणकुच्छीओ सण्णयपासाओ संगय જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્રા
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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