SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 123
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १११ प्रकाशिका टीका सू. १५ सिद्धायतनकूटवणनम् 'से णं एगाए' तत् सिद्धायतनकूटं खलु एफया 'पउमवरवेइयाए' पद्मवरवेदिकया 'एगेण य' एकेन च 'वणसंडेणं' वनषण्डेन 'सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते' सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तं--परिवेष्टितम् । पद्मवर येदिकावनषण्डयोर्दै 'यविस्तारप्रमाणं वर्णनं च जम्बूद्वीपजगतीगत पद्मवरवेदिकावनषण्डयोरिव बोध्यम् । एतदेव सूचयितुमाह-- 'पमाणं बण्णो दोहंपि' प्रमाणं वर्णको द्वयोरपीति । तथा 'सिद्धाययणकूडस्स णं उप्पि' सिद्धायतनकूटस्य खलु उपरि-ऊर्श्वभागे 'बहुसमर मणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते' बहुसमरमणियः भूमिभागः प्रज्ञप्तः, ‘से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव वाणमंतरा देवा य जाव विहरंति' स यथानामक: आलिङ्गपुष्कर इति वा यावद् व्यन्तरा देवाश्च यावद् विहरन्ति । अत्र एक पावरवेदिका से और एक वनषंड से सब ओर से घिरा हुआ है पद्मवर वेदिका और वनषण्ड का वर्णन लम्बाई चौड़ाई को लेकर जैसा जम्बूद्वीप की जगती की पद्मवरवेदिका का और उसके वनषण्ड का पहिले किया जा चुका है वैसा ही है । इसी बात को सूचित करने के लिए सूत्रकारने "प्रमाणं वर्णको द्वयोरपीति' ऐसा सूत्र पाठ कहा है । ___"सिद्धाययणकूडस्स णं उपि बहुसमसमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते" उस सिद्धायतनकूट के ऊपर बहुसमरमणीय भूमिभाग कहागया है “से जहाणामए आलिंगपुस्वरेइ वा जाव वाणमंतरा देवा य जाव विहरंति" वह बहुसमरमणीय भूमि ऐसी बहुसम है कि जैसा बहुसम मृदङ्ग का मुखपुट होता है यावत् यहां अनेक व्यन्तर देव आदि अपने समय को आनन्द से व्यतीत करते रहते हैं यहां यावत्पद द्वय से राजप्रश्वोयसूत्र के १५वे सूत्र से लेकर १९वे सूत्रतक जो पाठ कहा गया है वह गृहोत हुआ है. इस समस्त पाठ का अर्थ हमने उसकी सुबोधिनी टीका में लिखा है अतः वहीं से इस विषय को समझ लेना चाहिये ! ત્યાંથી આ વિષે વાંચી લેવું જોઈએ આ સિદ્ધાયતફટ એક પદ્રવરદિકાથી અને એક વનપંડની ચારે બાજુએથી ઘેરાયેલું છે. પદ્મવરવેદિકા અને વનખંડનું વર્ણન લંબાઈ તેમજ ચોડાઈની અપેક્ષાઓ જેમ જ બુદ્વીપની જગતિની પાવર વેદિકા અને તેના વનખંડનું પહેલા १२वामा मान्यु छ तेयु छ. म पातन सूयित ४२५। माटे सूत्रधारे ‘पमाणं वर्णको द्वयोरपीति' मा तने। सूत्र 48 घो छे. सिद्धाययणकूडस्स ण उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते" ते सिद्धायतन इटनी 6५२ माड्सम २भीय भूमिमा छे. “से जहा णामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव वाणमंतरा देवा य जाय विहरति" त पसभरमणीय भूमिमा भृग भुभवत બસમ છે. યાવત્ અહીં અનેક વ્યંતર દેવ આદિ પિતાના સમયને આનંદ પૂર્વક પસાર કરે છે. અહીં યાવત્પદદ્વયથી રાજપ્રશ્રીયસૂત્રના ૧૫મા સૂત્રથી ૧૯ માં સૂત્ર સુધી જે પાઠ કહેવામાં આવેલ છે તેનું ગ્રહણ સમજવું આ સમસ્ત પાઠને અર્થ અમોએ ત્યાં સુબે ધિની ટીકામાં લખે છે એથી આ સંબંધમાં ત્યાંથી જ જાણી લેવું જોઈએ. - જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy