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________________ १०४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे पद्मवरवेदिकया 'इक्केण वणसंडेणं' एकेन वनषण्डेन च-'सब्वओ समंता संपरिक्खिते' सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्त-परिवेष्टितमिति । अनयोर्दै र्यविस्तार प्रमाणं बणेन च जम्बूद्वीपजगतीगतपद्मवरचेदिकावनषण्डयोरिव बोध्यम् । एतदेव सूचयितुमाह 'पमाणं वण्णगो दोण्ह पि' प्रमाणं वर्णको द्वयोरपीति ।। अथ गौतमः पुनः पृच्छति-'वेय इहस्सणं भंते' इत्यादि । 'बेयइढस्स गंभंते ! पब्वयस्स सिहरतलस्स केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते । हे भदन्त ! बैताव्यस्य खलु पर्वतस्य शिखरतलस्य कोदृशकः आकारभावप्रत्यवतार:-स्वरूपपर्यायप्रादुर्भावः प्रज्ञप्तः ? भगवानाह-'गोयमा ! बहुसरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते' हे गौतम ! बहुसमरमणीयः भूमिभागः प्रज्ञप्तः, 'से जहाणामए अलिंगपुक्खरेइवा जाव णाणाविह पंचवण्णेहिं मणीहि उवसोभिए जाव वावीओ पुक्खरणीओ जाव वाणमंतरा देवा य देवीओ य आसयंति जाव मुंजमाणा विहरंति' स यथानामकः आलिङ्गपुष्कर इति वा पश्चबणै मणिभिरुपशोभितो यावद वाप्यः पुष्करिण्यो यावद व्यन्तरा देवाश्च वेइयाए इक्केणं वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते पमाणं वण्णगो दोहंपि " वह शिखरतल एक पावर वेदिका और एक वनषण्ड से चारों ओर से घिरा हुआ है. इन दोनो को लम्बाई चौडाई का प्रमाण तथा इनके सम्बन्ध का वर्णन जम्बूद्वीप की जगती पद्मवर वेदिका और वनषण्ड के वर्णन जैसा ही है । "वेयड्ढस्स णं भंते ! पव्वयस्त सिहरतलस्स केरिसए आगारभावपाडोयारे पण्णत्ते" हे भदन्त ! वैताब्य पर्वत के शिखर का आकारभाव प्रत्यवतार-स्वरूप कैसा कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं “गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते" हे गौतम ! शिखर तलका जो भूमिभाग है वह सम एवं रमणीय कहा गया है, ' से जहोणामए आलिंगपुक्खरे इवा णाणाविह पंच वण्णोहिं मणोहिं उवसोभिए जाव वावीओ पुक्खरिणोओ जाव वाण-मंतर देवाय देवीओ य आसयंति जाव मुंजमाणा विहरंति" जैसा बहुसमरमणीय मृदंग का मुख पुट होता है इत्यादि रूप से तथा यावत् नाना प्रकार के पंच वर्णोपेत मणियों से वह संडेणं सव्वओ समता संपरिक्खित्ते पमाणं वण्णओ दोण्हंपि" ते शितल मे पझવરદિકા અને એક વનખંડથી ચારે તરફથી ઘેરાએલું છે. એ બન્નેની લંબાઈ-ચડાઈનું પ્રમાણ તેમજ એમના સંબંધનું વર્ણન જંબુદ્વીપની જગતીની પદ્વવરવેદિકા અને વનખંડના पान २j / छे. 'वेयड्ढस्स णं भंते ! ण्व्वयस्स सिहरतलस्स केरिसए आगारभावषडोयारे पण्णत्ते" उ महन्त ! वैतादय पतना शिरन 24131सार प्रत्यक्ता२-(२१३५) व। छ. ? सनम प्रभु डे छे. "गोयमा! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते" उ गौतम ! शिम२ तसन भूमिमा छे ते समरमणीय छे. “से जहाणामए आलिंग पुक्खरेइवा जाव जाणाविह पंचवण्णेहि मणीहि उवसोभिए जाव वावीओ पुक्खरिणीओ जाव वाणमंतरा देवाय देवीओ य आसयति जाव भुंजमाणा विहरंति" भृ भु५ ५८ व જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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