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________________ सूर्यशतिप्रकाशिका टीका सू० ८९ अष्टादश प्राभृतम् ८१३ तत् र्द्ध-सार्द्धकमिति सर्वत्रैवं योज्यं, अतः सार्डे च योजनसहस्रे गते चन्द्रो भूमेरुपरिव्यवस्थितो भवति सर्वत्र सूत्रे योजनसंख्यापदस्य सूर्यादिपदस्य च तुल्याधिकारणत्व निर्देशोऽभेदत्वोपचाराद्दश्यते, यथा प्रयागात् काशीक्षेत्रं द्वादश योजनानीत्यादौ प्रयोगदर्शनादिति, एव मन्येष्वपि सूत्रेषु ज्ञातव्य मित्यत्रोपसंहारवाक्यमाह - एके एवमाहुरिति ॥ १॥ अथ द्वितीयस्य मतनाह - ' एगे पुण एवमामु-ता दो जोयणसहस्साईं सरे उडूं उच्चत्तेनं अड्डातिजई चंदे एगे एवं मातुर' एके पुनरेवमाहु स्तावत् द्वे योजनसहस्रे सूर्य : ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, अर्द्धतृतीयानि चन्द्रः, एके एवमाहुः २ || एके - द्वितीयास्तीर्थान्तरीया स्तावत् एवं कथयन्ति यत् भूमेरूर्ध्वं द्वे योजनसहस्त्रे सूर्यो व्यवस्थितः, अर्द्धतृतीयानि योजन सहस्राणि सार्द्धयोजन सहस्रद्वयं भूमेरुमुच्चत्वेन चन्द्रो व्यवस्थित इति द्वितीयास्तीर्थान्तरीयाः कथयन्ति ॥ एवमेव शेषाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि सर्वत्र एकैकं माने डेढ हजार योजन भूमि से ऊपर चंद्र व्यवस्थित रहता है। सूत्र में सर्वत्र योजन संख्यापद का तथा सूर्यादि पद का समानाधिकरण होने से अभेदोपचार दिखता है । जैसे की प्रयाग से काशि क्षेत्र बारह योजन है, इत्यादि में अभेदोपचार का प्रयोग दिखता है । इसी प्रकार अन्य सूत्रों में भी समझ लेवें अब उपसंहार कहते हैं कोई एक इस प्रकार से कहता है (१) अब दूसरा परतीर्थिक का मत कहते हैं - ( एगे पुण एवमाहंसु ता दो जोयणसहस्साई सरे उड्ड उच्च लेणं अड्डातिज्जाई चंदे एगे एवमाहंसु ) दूसरा तीर्थान्तरीय इस प्रकार कहता है कि भूमि से ऊपर दो हजार योजन सूर्य व्यवस्थित होता है, तथा अढाइ हजार योजन भूमि के ऊपर उच्चत्व में चंद्र व्यवस्थित रहता है, इस प्रकार दूसरा तीर्थिक का अभिप्राय है (२) इसी प्रकार अन्य मतवादियों के कथन प्रकार के सूत्रभावित कर लेवें, एक एक हजार योजन की वृद्धि से सूर्य के विषय में एवं सूर्य से आधा हजार योजन ज्यादा ચેાજન જમીનના ઉપર ચંદ્ર વ્યવસ્થિત રહે છે. સૂત્રમાં બધે યાજન સ`ખ્યા પદનુ` અને સૂર્યાનૢિયદનુ સમાનાધિકરણ હેાવાથી અભેદોચાર જણાય છે. જેમકે-પ્રયાગથી કાશિક્ષેત્ર ખાર ચેાજન છે. ઇત્યાદિમાં અભેદ્દેપચારને પ્રયાગ દેખાય છે. એજ પ્રમાણે અન્ય સૂત્રમાં પણ સમજી લેવું. હવે ઉપસંહાર કહે છે કેઈ એક આ પ્રમાણે કહે છે. [૧] हवे जीन परतीर्थिनो भत हे छे - ( एगे पुण एव माहंसु ता दो जोयणसहस्साइ सूरे उड़ढ उच्चत्ते अड्ढा तिज्जाई चंदे एत्रमासु) मीले आई तीर्थान्तरीय माप्रमाणे કહે છેકે-જમીનની ઉપર બેહુન્નર ચેજન સૂર્યાં વ્યસ્થિત રહે છે. તથા અઢીહજાર ચેાજન જમીનની ઉપર ઊંચાઈએ ચંદ્ર વ્યવસ્થિત રહે છે. આ રીતે ખીજા તીર્થાન્તરીયના મત છે. (૨) એજ પ્રમાણે ખીન્ન મતવાદિયાના કથન પ્રકારના સૂત્રે ભાવિત કરી લેવા એક એક હજાર ચેાજનના વધારાથી સૂર્ય સંબંધી અને સૂય'થી પાંચસા યાજન વધારે ઉપર ચંદ્ર શ્રી સુર્યપ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્ર : ૨
SR No.006352
Book TitleAgam 16 Upang 05 Surya Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1982
Total Pages1111
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_suryapragnapti
File Size77 MB
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