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________________ ३४८ सूर्यप्राप्तिसूत्रे पर्यवसान-पर्यवसानसमयः-समाप्तिकाल स्तस्मादनन्तरपुरस्कृतः-अग्रे स्थितः-भाव्यवहितेऽन्तरे वर्तमानो यः समयः स एव प्रथमस्य-सर्वादिमस्य चान्द्रस्य संवत्सरस्यादि भवति । चक्रनेमिक्रमे प्रारम्भपर्यवसानयोरेकत्रैव स्थिति भवत्येवेति प्रत्यक्षोपलब्धिरेवात्र युक्तिः, किमन्यया युक्त्येति ?॥ तदेवं प्रथमसम्वत्सरस्यादितिः । सम्प्रति-तस्यैव प्रथमसम्वत्सरस्य पर्यवसानसमयं पृच्छति-'ता सेणं किं पज्जवसिए आहिएत्ति वएज्जा' तावत् स खलु किं पर्यवसित आख्यात इति वदेत् ॥-तावदिति-पूर्ववत् सः-प्रथमाख्यश्चान्द्रसम्वत्सरः किं पर्यवसितः ?-कि पर्यवसानमाख्यातमिति वदेत-प्रथमश्चान्द्रसम्वत्सरः कथं पर्यवसितो भवतीति कथय भगवन् ! इति गौतमस्य प्रश्नस्तो भगवानाह-"ता जेणं दोच्चस्स आदी चंदसंवच्छरस्स सेणं पढमस्स चंदसंबच्छरस्स पज्जवसाणे अणंतरपच्छाकडे समए' तावद् यः खलु द्वितीयस्यादि श्चान्द्र संवत्सरस्य तत् खलु प्रथमस्य चान्द्रसम्बत्सरस्य पयेवसानम्, अनन्तरपश्चात्कृतः समयः ॥-तावदिति प्राग्वत् पूर्वप्रतिपादितयुक्त्यैव वृत्तपरिधौ चक्रारे स्थितस्य द्वितीयस्य चान्द्रसम्वत्सरस्य यः खलु आदिः-प्रारम्भकालस्तस्मादव्यवहितेऽन्तरे यः पश्चात्कृतः-अतीत:-पूर्वमव्यवहितेऽन्तरे स्थितो यः समयः सः-स एव में प्रारम्भ एवं समाप्ति की स्थिति एक ही होती है यह प्रत्यक्ष से ही उपलब्धि होती है यही यहां पर युक्ति कही है। इससे भिन्न युक्ति का क्या प्रयोजन है ? इस प्रकार प्रथम संवत्सर के आरम्भ विषय में जानकर अब श्री गौतमस्वामी प्रथम संवत्सर के अन्त विषय में प्रश्न करता है-(ता से णं किं पजवसिए आहिएत्ति वएज्जा) वह पहला चांद्र संवत्सर किस प्रकार समाप्त होता है ? सो हे भगवन् आप कहिये इस प्रकार श्री गौतमस्वामी के प्रश्न को सुनकर उत्तर में श्री भगवान् कहते हैं-(ता जे णं दोच्चस्स चंदसंवच्छरस्स आदी से णं पढमस्स चंदसंबच्छरस्स पजवसाणे अणंतरपच्छाकडे समए) पूर्वप्रतिपादित युक्ति से ही वृत्तपरिधि में चक्राकार से रहा हुवा दूसरा चांद्र संवत्सर का जो प्रारम्भ काल होता है, उससे अव्यवहित रहा हुवा जो समय वही काल पहला चांद्र संवत्सर का अर्थात् प्रथम संवत्सर का સ્થિતિ એકજ પ્રકારની થાય છે. એ જ અહીંયા યુક્તિ કહેલ છે. આનાથી જુદી યુક્તિનું શું પ્રયોજન છે? આ પ્રમાણે પહેલા સંવત્સરના આરંભના સંબંધમાં સમ્યક રીતે જાણીને डवे श्रीगौतभस्वामी पडसा सवत्स२ना मतना समयमा प्रश्न पूछे छ-(ता सेणं किं पण्जवसिए आहिएति वएज्जा) २॥ पडे यांद्र संवत्स२ ४४ रीते समाप्त थाय छ ? ते હે ભગવન આપ કહો આ પ્રમાણે શ્રીગૌતમસ્વામીના પ્રશ્નને સાંભળીને તેના ઉત્તરમાં श्रीभगवान् ४ छ-(ता जेणं दोच्चस्स चंदसंबच्छरस्स आदी से णं पढमस्स चंदसंवच्छ. रस्स पज्जवसागे अणंतरपुरक्खडे समर) पूर्व प्रतिपाहित युतियी वृत्त थिमा यद्रકારથી રહેલ બીજા ચાંદ્ર સંવત્સર જે આરંભ કાળ હોય છે, તેનાથી વગર વ્યવધાનથી શ્રી સુર્યપ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્ર:
SR No.006352
Book TitleAgam 16 Upang 05 Surya Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1982
Total Pages1111
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_suryapragnapti
File Size77 MB
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