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________________ सूर्यज्ञप्तिप्रकाशिका टीका सू० १२ प्रथमप्राभृते द्वितीयं प्राभृतप्राभृतम् भवति । 'ता जया णं इत्यादि, ततो यदा खलु सूर्यो बाह्यानन्तरां-सर्वबाह्यादनन्तरां दक्षिणामर्द्धमण्डलसंस्थिति मुपसंक्रम्य चारं चरति, तदा खलु अष्टादशमुहूर्ता रात्रि भ्यां मुहूर्तेकषष्टिभागाम्या मूना भवति, द्वादशमुहूर्त्तप्रमाणो दिवसो द्वाभ्यां मुहूर्तेकषष्टिभागाभ्यामधिको भवन्ति । ‘से पविसमाणे' इत्यादि, तत स्तस्मिन्नहोरात्रेऽतिक्रान्ते सति सूर्योऽ. भ्यन्तरं प्रविशन द्वितीयस्य षण्मासस्य द्वितीयेऽहोराने दक्षिणस्माद् भागात-दक्षिणदिरभाविनोऽन्तरादक्षिण दिग्भावि सवेबाह्यानन्तरद्वितीयमण्डलगताष्टाचत्वारिंशद्' योजनेकपष्टिभागाभ्यधिक तदनन्तरार्वाग्भावि योजनद्वयप्रमाणादपान्तरालरूपाद् भागाद् विनिःसृत्य यानि । 'तस्साइपएसाए' इति, तस्य-सर्वबाह्याभ्यन्तरस्य तृतीयस्योत्तरार्द्धमण्डलस्यादिप्रदेशात्आदिप्रदेशमाश्रित्य बाह्यतृतीयां सर्वबाह्याया अद्धमण्डलसंस्थिते स्तृतीयामुत्तरामर्द्धमण्डलसंस्थिति मुपसंक्रम्य चारं चरति । अत्रापि चारे आदि प्रदेशादारभ्य शनैः शनैरपरार्द्धमण्डमंडल की सीमा में होता है (ता जया णं) इत्यादि तत्पश्चात् जब सूर्य सर्वयाह्यमंडल के अनन्तर दक्षिण के अर्द्धमंडलसंस्थिति को प्राप्त करके गति करता है, तब दो मुहूर्त के इकसठवें भाग न्यून रात्रि होती है तथा दो मुहूर्तके इकठसवां भाग अधिक बारह मुहूर्त प्रमाण का दिवस होता है (से पविसमाणे) इत्यादि तत्पश्चात् वह अहोरात्र समाप्त हो जाने पर सूर्य अभ्यन्तर में प्रवेश करता हुवा दूसरे छह मास के दूसरे अहोरात्र में दक्षिण भाग से अर्थात दक्षिण दिशा की ओर के अन्तर से दक्षिणदिग्भावि सर्वबाद्यानन्तर दूसरे मंडल गत अडतालीस योजन के इकसठिया भाग से अधिक उसके पश्चात समीपवर्ति दो योजन प्रमाणवाले अपान्तराल रूप भाग से निकल कर जो (तस्साइपएसाए) सर्वबाह्याभ्यन्तर के तीसरे उत्तरार्द्धमंडल के आदि प्रदेश से अर्थात् आदि प्रदेश को आश्रित कर के तीसरे सर्वबाह्यमंडलसंस्थिति के तीसरे पीछे की अर्द्धमंडलसंस्थिति में उपसंक्रमण कर के गति करता है। यहां पर भी गति में आदि प्रदेश से प्रारम्भ कर के धीरे धीरे सीमामा थाय छ, (ता जया गं) त्याहि ते ५छी न्यारे सूर्य समाह भनी पछी દક્ષિણની અધમંડળસંસ્થિતિને પ્રાપ્ત કરીને ગતિ કરે છે, ત્યારે બે મુહૂર્તન એકસઠ मा धारे पा२ मुहूत प्रमाणुन हिस थाय छे. (से पविसमाणे) त्या ते पछी से અહોરાત્ર સમાપ્ત થઈ જાય ત્યારે સૂર્ય અભ્યન્તરમાં પ્રવેશ કરીને બીજા છ માસના બીજા અહોરાત્રમાં દક્ષિણ ભાગથી અર્થાત્ દક્ષિણ દિશા તરફના અંતરથી દક્ષિણદિભાવી સર્વ— બાહ્યાનન્તર બીજા મંડળગત અડતાલીસ જનને એકસઠિયા ભાગથી વધારે તે પછીના सभीति' मे यान प्रमाणुवाणा अपान्तराख ३५ भागथी नीजीने (तस्साइपएसाए) સર્વબાહ્યાભ્યન્તરના ત્રીજા ઉત્તરાર્ધ મંડળના આદિ પ્રવેશથી અર્થાત્ આદિ પ્રદેશને આશ્રય કરીને ત્રીજા સર્વબાહ્ય અર્વમંડળ સંસ્થિતિની ત્રીજી પછીની અધમંડળસંસ્થિતિમાં શ્રી સુર્યપ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્ર: ૧
SR No.006351
Book TitleAgam 16 Upang 05 Surya Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1981
Total Pages1076
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_suryapragnapti
File Size74 MB
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