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________________ % 3 Dt.in सूर्यशप्तिप्रकाशिका टीका सू० १२ प्रथमप्राभृते द्वितीयं प्राभृतप्राभृतम् भावि सूर्यविषया अर्द्धमण्डलसंस्थितिः--अर्द्धमण्डलव्यवस्था, द्वितीया उत्तरदिग्विभावि सूर्यविषया अर्द्धमण्डलसंस्थितिः, एव मुक्तेऽपि भूयः पृच्छति-‘ता कहं ते' इत्यादि, इह द्वे अपि अर्द्धमण्डलसंस्थिती ज्ञातव्ये भवतः, तत्रेदं तावत् पृच्छामि-कथं भगवन् दक्षिणा-दक्षिणदिग्विभाविसूर्यविषया अर्द्धमण्डलसंस्थिति राख्याता इति वदेत् ? ततो भगवानाह-'ता अयण्णं' इत्यादि, तावदयं जम्बूद्वीप द्वीपः सर्बद्वीपसमुद्राणां मध्यवर्तित्वात यावत् परिक्षेपेण परिधिना अत्रेदं जम्बूद्वीपवाक्यं पूर्ववदेव परिपूर्ण विज्ञेयम् । 'ता जया णं' इत्यादि, तत्र यदा खलु सूर्यः सर्वाभ्यन्तरां दक्षिणामर्द्धमण्डलसंस्थिति-मुपसंक्रम्य चारं चरति तदा खलु उत्तमकाष्ठा प्राप्तः, सर्वाभ्यन्तरां-सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतां दक्षिणाम अर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा उत्तमकाष्ठाप्राप्तः परमप्रकर्षतां गतो भवति, तेन 'उक्कोसए' उत्कर्षकः--उत्कृष्टः-परमाधिकः, अष्टादशमुहूत्तों दिवसो भवति, मंडल की व्यवस्था विषय में निश्चय से यह दो अर्द्धमंडलसंस्थिति-व्यवस्था मैंने कही है सो इस प्रकार से है एक दक्षिणदिरभावि सूर्यविषयक अर्द्धमंडलसंस्थिति-व्यवस्था एवं दूसरी उत्तरदिग्भावि सूर्यविषयक अर्द्धमंडल संस्थिति। पुनः श्रीगौतमस्वामी पूछते हैं-(ता कहं ते) इत्यादि आपने अर्द्धमंडलसंस्थिति कही है इस विषय में यह प्रश्न है कि आपने दक्षिणदिग्भावि सूर्यविषयक अर्द्धमंडल की व्यवस्था कैसी कही है ? सो कहें भगवान् उत्तर देते हैं, (ता अयपणं) इत्यादि यह जम्बूद्वीप नाम का द्वीप सर्वद्वीप एवं समुद्रों का मध्य में होने से यावत् परिक्षेप से यहां यह जम्बूद्वीपवाक्य पूर्वोक्त रूप से परिपूर्णरूप से जानना चाहिए। (ता जया णं) इत्यादि उसमें जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर दक्षिणा मंडलव्यवस्था में उपसंक्रमण करके गति करता हैं तब उत्तमकाष्ठा को प्राप्त अर्थात् परम प्रकर्षको प्राप्त करके सर्वाभ्यन्तर मंडलगत दक्षिणदिशा संबंधी संस्थितिव्यवस्था में उपसंक्रमण करके गति करता है तब उत्तमकाष्ठा प्रास-परम प्रकर्ष को प्राप्त होता है अतः (उक्कोसए) उत्कृष्ट से माने अधिक से अधिक अठारह પ્રમાણે છે. એક દક્ષિણદિભાવી સૂર્ય સંબંધી અર્ધમંડળ સ્થિતિ અને બીજી ઉત્તર વિભાવી સૂર્ય સંબંધી અર્ધમંડળ સંસ્થિતિ. थी श्री गौतमस्वामी पूछ छ-(ता कहं ते) त्याहि मापे में अभी स्थिति કહી છે એ સંબંધમાં આ પ્રશ્ન છે કે-આપે દક્ષિણદિગ્ગાવી સૂર્ય સંબંધી અર્ધમંડजनी व्य१२या वी डी छ ? उत्तरमा प्रसुश्री ४ छ-(ता अयण्णं) त्याहि मा ५ દ્વીપ નામને દ્વીપ સર્વદ્વીપ અને સમુદ્રની મધ્યમાં હેવાથી યાવત પરિક્ષેપથી અહીયાં 2. भूदी५॥४य पूर्वरित ३५थी परिपूर्णते न ये (ता जया णं) त्याहितमा જ્યારે સૂર્ય સભ્યતર દક્ષિણાદ્ધમંડળ વ્યવસ્થામાં ઉપસિંક્રમણ કરીને ગતિ કરે છે ત્યારે परमप्रधान प्राप्त २ छे. तेथी (उक्कोसए) अष्टथी थेटसे पधारेभा पधारे अढा२ શ્રી સુર્યપ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્ર: ૧
SR No.006351
Book TitleAgam 16 Upang 05 Surya Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1981
Total Pages1076
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_suryapragnapti
File Size74 MB
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