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________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद ३४ सू० ३ देवानां परिवारणानिरूपणम् ८४७ पपातिका देवा अपरिचारणाः, तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते तच्चैव यावद् मनःपरिचारणाः, तत्र खलु ये ते कायपरिचारका देवा स्तेषां खलु इच्छामनः समुत्पद्यते - इच्छामः खलु अप्सरोभिः सार्द्धं कायपरिचारं कर्तुम्, ततः खलु तैः देवैः एवं मनसि कृते सति क्षिप्रमेव ता अप्सरसः उदाराणि शृङ्गाराणि मनोज्ञानि मनोहराणि मनोरमाणि उत्तरबैक्रियरूपाणि विकुर्वन्ति, विकुर्विश्वा तेषां देवानामन्तिकं प्रादुर्भवन्ति ततः खलु ते देवास्ताभिरप्सरोभिः सार्द्ध कायपरिचारिणां कुर्वन्ति, तत् यथानाम शीताः पुद्गलाः शीतं प्राप्य शीत - चुए कप्पे देवा मणपरिधारणा) आनत, प्राणत, आरण और अच्युतकल्पों में देव मन से परिचारणा करते हैं (गेवेज्जअणुत्तरोववाइया देवा अपरियारगा) ग्रैवेयकों के और अनुत्तरौपपातिक देव परिचारणा रहित होते हैं (से तेण गोमा !) इस कारण हे गौतम ! (तं चेव जाव मणपरियारगा) वही पूर्वोक्त, यावत् मन से परिचारणा करते हैं (तत्थ णं जे ते कायपरियागा देवा) उनमें जो काय से विषय सेवन करने वाले देव हैं (तेसिं णं इच्छामणे समुष्पज्जइ) उनका इच्छा-मन उत्पन्न होता है कि (पच्छामो णं अच्छराहि सद्धिं कायपारियारं करेन्तए) हम अप्सराओं के साथ शरीर से परिचार- मैथुन करना चाहते हैं (तए णं तेहि देवेहिं एवं मणसि कए समाणे) तब उन देवों द्वारा इस प्रकार मन से से बने पर ( खियामेव ) शीघ्र ही (ताओ अच्छराओ) वे अप्सराएँ ( ओरालाई) उदार (सिंगाराई) आभूषणादि युक्त (मणुणाई) मनोज्ञ (मणोहर (ई) मनोहर (मणोरमाई) मनोरम (उत्तर वे उब्विय रूबाई) उत्तरवैक्रिय रूप (विउव्वंति) विक्रिया से बनाती है (विउग्वित्ता) विक्रिया करके (तेसि देवाणं अंतियं पाउञ्भवंति ) उन देवों के निकट आती हैं (तए णं ते देवा ताहिं अच्छराहिं सद्धिं) तब वे देव उन अप्सराओं के साथ (कायपरियारण સેવન કરે (गेवेज्ज अणुत्तरोववाइया देवा अपरियारणा) येथेयोनां भने अनुत्तरोपयातिङ देव परियाराडित छे. (से तेणट्टेण गोयमा) से अरथी हे गौतम! (त ं चैव जाब मण परियारणा) ते ४ पूर्वेति यावत् भनथी परियार ४२ छे. (तत्थण जे ते कायपरियारणा देवा) तेमनामां भेो। अयाथी विषयसेवन १२नारा देवे छे (तेसि णं इच्छामणे समुपज्जइ ) तेमने छामन उत्पन्न थाय छे हैं (इच्छामो णं अच्छराहिं सद्धिं कायपरियार' करेत्तए) अभे अप्सराओनी साथै शरीरथी परियार - मैथुन - ४२वा याडीये छ. ये. (तरण' तेहि देबेहि एवं मणसी कए समाणे) त्यारे ते देवा द्वारा या रीते मनथी विद्यारवाथी (विप्पामेव ) ४हट्टीथी (ताओ अच्छराओ ) ते अप्सराओ ( ओरालाई) उहा२ ( सिंगाराई) आभूषणाद्दिथी युक्त (मनुण्णाई) मनोज्ञ (मणोहराई ) मनोहर (मणोरमाई) मनोरम (उत्तर वेव्वियरूवाई) उत्तर वैयि ३५ ( विध्वंति) विडियाथी मनाये है, (विउव्वित्ता) विडिया उरीने (तेसि देवाणं अंतियं पाउन्भवंति ) ते हेवानी न आवे छे. શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૫
SR No.006350
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages1173
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size76 MB
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