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प्रज्ञापनासूत्रे
कुमाराः, एकेन्द्रियेषु अभङ्गकम्, द्वीन्द्रिय यावत् पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकेषु त्रिकभङ्गः, मनुष्य वानव्यन्तरेषु षड्भङ्गाः, नो संज्ञो नो असंज्ञो खलु मदन्त ! जीवः किम् आहारकः अनाerre: ? गौतम ! स्यात् आहारकः स्वाद् अनाहारकथ, एवम् मनुष्योऽपि, सिद्धः अनाहारकः, पृथक्त्वेन नो संज्ञिनो नो असंज्ञिनो जीवा आहारका अपि अनाहारका अपि, मनुeg त्रिकभङ्गः, सिद्धा अनाहारकाः || द्वारम् ३ ॥ सू० ७ ॥
टीका - अथ प्रथमं सामान्येन आहारद्वारं प्ररूपयितुमाह- 'जीवे णं भंते ! कि आहारए अथवा बहुत अहारक, एक अनाहारक ५ ( अहवा आहारगा य अनाहारगा य) अथवा बहुत आहारक, बहुत अनाहारक६ ( एवं एए क्रभंगा) इस प्रकार ये छह भंग होते हैं (एवं जाव धणियकुमारा) इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक (एगिदिएस अभंगअं) एकेन्द्रियों में अभंगक है (बेइंदिय जाव पंचिदियतिरिक्खजोणिएस तियभंगो) होन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय तिर्यचों में तीन भंग (मणूस वाणमंत रेसु छन्भंगा) मनुष्य और वानव्यन्तरों में छह भंग होते हैं।
(नो सण्णी नो असण्णी णं भंते ! जीवे कि आहारए अणाहारए १) हे भगवन ! नो संज्ञी नो असंज्ञी जीव क्या आहारक है या अनाहारक ? (गोधमा ! सिय आहारए, सिय अणाहार ए य) हे गौतम! कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक ( एवं मणूसे वि) इसी प्रकार मनुष्य भी (सिद्धे अणाहारए) सिद्ध अनाहारक (पुहुत्ते) पृथक्त्व - बहुत्व की अपेक्षा से (नोसण्णी नोअसण्णी जीचा आहारगा वि अणाहारगा वि) नोसंज्ञी नोअसंज्ञी जीव आहारक भी हैं, अनाहारक भी हैं ( मणूसे तियभंगो) मनुष्यों में तीन भंग (सिद्धा अणाहारगा) सिद्ध अनाहारक हैं || सू० ७ ॥
अणाहारय) अथवा घणा महार४, से मनाहा२४ ५ ( अहवा आहारगा य अणाहारगा य) अथवा धणा साहा२४, धणा मनाहा ६ ( एवं एए छब्भंगा) से प्रारे मा छलौंग थाय छे. (एव जाय थजियकुमारा) ये प्रारे स्तनितकुमारी सुधी (एगि दिएस अभंगअं) केन्द्रियोभां अलग छे (इंदिय जान पंचिदियतिरिक्खखोणिएसु तियभंगो) द्वीन्द्रिय यावत् यथेन्द्रिय तिर्यथामां मंग (मणूस वाणमंतरेसु छन्भंगा) मनुष्य अने पानव्यन्त रोमां छलंग भगवा
(नो सण्णी नो असण्णी णं भंते ! जीवे कि आहारए, अणाहारए, ?) - हे भगवन् ! नो संज्ञी नो असंज्ञी पशु आहार छे है अनाहार छे ? (गोयमा ! सिय आहारए सिय अणाहारए, य) १ चित आहार भने अथति अनाहार ( एवं मणूसे वि) खेन प्रारे भनुष्य पशु (सिद्धे अणाहारए) सिद्ध मनाहा २४ छे. (पुहुत्तेणं) पृथउत्प- हुत्वनी अपेक्षाथी (नो सण्णी नो असण्णी जीवा आहारगा वि अणाहारगा वि ) ने संज्ञी तो असंज्ञी आहार! पशु छे, अनाहा२४ पशु छे ( मणूसेसु तिथ भंगो) मनुष्याभांशु लौंग (सिद्धा अणाहारगा) सिद्धगनाहार
॥०७॥
શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૫