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________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद २८ सू० ७ जीवदीनामाहारादिद्वारनिरूपणम् अथवा आहारकाश्च अनाहारकाश्च ३ एवं यावद वैमानिकाः, नवरम एकेन्द्रिया यथा जीपाः, सिद्धाः खलु पृच्छा, गौतम ! नो आहारकाः, अनाहारकाः, ॥द्वारम् १॥ भवसिद्धिक: खलु भदन्त ! जीवः किम् आहारकः अनाहारकः ? गौतम ! स्याद् आहारकः स्याद् अनाहारकः, एवं यावद् वैमानिकः, भवसिद्धिकाः खलु भदन्त ! जीवाः किम् आहारकाः अनाहारकाः ? गौतम ! जीवकेन्द्रियवर्जस्त्रिकभङ्गः, अभयसिद्धिकोऽपि एवञ्चव, नो भवसिद्धिक नो अभवसिद्धिकः खलु भदन्त ! जीवः किम् आहारकः अनाहारकः ? गौतम नो (नेरइयाणं पुच्छा ?) नारकों के विषय में प्रश्न ? (गोयमा ! सव्ये वि ताव होज आहारया) हे गौतम ! सभी आहारक होते हैं (अहया आहारगा य अणाहारए य) अथवा बहुत आहारक, एक अनाहारक (अहया आहारगा य अणाहारगा य) अथवा बहुत आहारक बहुत अनाहारक (एवं जाय येमाणिया) इसी प्रकार वैमानिकों तक (णवरं एगिदिया जहा जीया) विशेष एकेन्द्रियों का कथन जीवों के समान (सिद्धाणं पुच्छो ?) सिद्धों संबंधीपृच्छा! (गोयमा ! नो आहारगा, अणाहारगा) हे गौतम ! आहारक नहीं, अनाहारक हैं। (भवसिद्धिए णं भंते ! जीवे आहारए, अणाहारए ?) हे भगवन् ! भवः सिद्धिक-भव्य जीव आहारक होते हैं अथवा अनाहारक ? (गोयमा ! सिय आहारए, सिय अणाहारए) हे गौतम ! कथंचित आहारक, कथंचित् अनाहारक (एवं जाच वेमाणिए) इसी प्रकार यावत् वैमानिक । (भवसिद्धिया णं भंते ! जीवा किं आहारगा, अणाहारगा ?) हे भगवन् ! बहुत्व विशिष्ट भवसिद्धिक जीव आहारक हैं या अनाहारक हैं ? (गोयमा ! जीवेगिदिययजो तियभंगो) हे गौतम ! जीव और एकेन्द्रिय को छोडकर तीन भंग होते हैं (अभवसिद्धिए वि एवं चेय) अभयसिद्धिक भी इसी प्रकार समझलेवें। (नो भवसिद्धिए नो अभयसिद्धिए णं भंते ! जीये) हे भगवन् ! नोभवसिद्धिक अना।२४ (एवं जाय वेमाणिया) मे०१, ४२ वैमानि। सुधा (णवरं एगिदिया जहा जीवा) विशेष सेन्द्रियोनु ४थन योना सभान (सिद्धाणं पुच्छा ?) सिद्धोनी सभी प्रश्न ? (नो आहारगा, अणाहारगा)-गौतम ! साड२४ नही मना२४ छ.. (भवसिद्धिएणं भंते ! जीवे आहारए, अणाहारए ?)- मापन ! मसिद्धि-भव्य 04 भाडा२४ छोय छे मनाहा२४ ? (गोयमा ! सिय आहारए, सिय अणाहारए)-3 गौतम ! हायित् मा२४, Bथायित् सना २४ (एवं जाब वेमाणिए) से प्रारे यापत् पैमानि (भयसिद्धिया णं भंते ! जीवा किं आहारगो अणाहारगा )-डे मापन पत्र विशिष्ट भवमिद्धि ७१ मा २४ छ. म मनाहा२४ छ ? (गोयमा! जीवेगिंदियवज्जो तिय भंगो) है गौतम ! ७ मन मेन्द्रिय सिवाय त्र थाय छ (अभवसिद्धिए वि एवं चेव) અભવસિદ્ધિક પણ એજ પ્રકારે. (नो भवसिद्धिए नो अभवसिद्धिएण भंते ! जीवे )-डे सावन न लापास શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૫
SR No.006350
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages1173
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size76 MB
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