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________________ ५३६ प्रज्ञापनासूत्रे प्रतीत्य वर्णतः कृष्णनीलानि, गन्धतो दुरभिगन्धानि, रसतस्तिक्तरसाटुकानि, स्पर्शतः कर्क शगुरुकशीतरूक्षाणि तेषां पुराणान् वर्णगुणान् गन्धगुणान् रसगुणान् स्पर्शगुणान् विपरिणमय्य परिपीडय परिशाटय परिविध्वस्य अन्यान् अपूर्वान् वर्णगुणान गन्धगुणान् रसगुणान् स्पर्श गुणान् उत्पाद्य आत्मशरीरक्षेत्रावगाहान पुद्गलान सर्वात्मना आहारम् आहारयन्ति, नैरयिकाखलु भदन्त ! सर्वतः आहारयन्ति, सर्वतः परिणमयन्ति सर्वतः उछ्यसन्ति सर्वतो निःश्वसन्ति ? करते हैं, अस्पृष्ट का आहार नहीं करते हैं (जहा भासुद्देसए) जैसा भाषाउद्देशक में कहा है (जाय नियमा छद्दिसि आहारे ति) यावत् नियम से छहों दिशाओं में से आहार करते हैं। __(ओसणं, कारणं पडुच्च) बहुलता कारण की अपेक्षा से (घण्णओ कालनीलाई) वर्ण से काले-नीले (गंधो दुम्भिगंधाई) गंध से दुर्गन्ध वाले (रसओ तित्तरसक डुयाई) रस से तिक्त और कटुक रस वाले (फासओ कक्खडगुरुय सीयलुक्खाई) स्पर्श से कर्कश, गुरु, शीत और रूक्ष (तेसिं) उन का (पोराणे) पुराना (वण्णगुणे) वर्ण गुण (गंधगुणे) गंध गुण (रसगुणे) रस गुण (फासगुणे) स्पर्श गुण (चिपरिणामइत्ता) बदल कर (परिपीलइत्ता) परिपीडन कर के (परिसाडइत्ता) परिशाटन कर के (परिविद्धंसइत्ता) विध्वस्त कर के (अण्णे) अन्य (अपुव्ये) अपूर्व-नया (चण्णगुणे गंधगुणे रसगुणे फासगुणे) वर्णगुण, गंधगुण, रसगुण, और स्पर्शगुण (उप्पाइत्ता) उत्पन्न कर के (आयसरीर खेतोगाढे) अपने शरीर क्षेत्र में अवगाहन किए हुए (पोग्गले) पुद्गलों को (सव्यप्पणाए) पूर्ण रूप से (आहारं आहारे ति) आहार करते हैं। (नेरइया णं भंते ! सन्चो आहारेति) हे भगवन् ! क्या नारक सर्वतःनो अपुदाई आहारे ति) हे गौतम ! २५ष्टन मा.२ ४३ छ, अष्टन। माहा२ नयी ४२ता (जहा भासुद्देसए) ने भाषा देशभi छे (जाय नियमा छहिसि आहारे ति) થાવત્ નિયમથી છએ દિશાઓમાં આહાર કરે છે. (ओसणं कारण पडुच्च) असताना ४२नी अपेक्षामे (वण्णओ कालनीलाई) परथी-मा-पाजी (गंधओ दुन्भिगंधाइ) मधी गधा (रसओ तित्तरसकड्डयाइ) २सथी तित अने टु२सपास (फासओ कक्खड गुरुय सीय लुक्खाई) २५३°थी ४२, शु३, शीत भने ३६. (तेसिं) तेमना (पोराणे) ५२९॥ (चण्णगुणे) ५० गुण (गंधगुणे) पशु) (रसगुणे) २सगुन (फासगुणे) २५शYए (विपरिणामइत्ता) माने (परिपीलइत्ता) पश्चिाउन ४रीने (परिसाडइत्ता) परिशाटन रीने (परिविद्धसइत्ता) वियरत ४शन (अण्णे) अन्य (अपुव्वे) अ५-140 (बण्णगुणे गंधगुणे रसगुणे फासगुणे) पशु, गुए, २५गुण अने २५ शुगर (उप्पाइत्ता) उत्पन्न शने (आयसरीरखेत्तोगाढे) पाताना १२ क्षेत्रमा माइन ४२॥ (पुग्गले) सोना (सव्यप्पणाए) पृ३५था (आहारं आहारति) माहा२ ४२ छ, શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૫
SR No.006350
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages1173
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size76 MB
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